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प्रवचन
२३५
ज्ञातिजन और परिग्रह आदि का त्याग कर निरहंकार और निरपेक्षभाव से जिनकथित धर्ममार्ग का आचरण करता हुआ विचरे ।
पृथिवी, पानी, अग्नि, वायु, घास, वृक्ष, बीज आदि वनस्पति और अण्डज, पोतज, जरायुज, रसज, संस्वेदज तथा उद्भिज्ज आदि त्रस, इन छ: जीवनिकायों का ज्ञान प्राप्त कर विद्वान् भिक्षु मन, वचन और काय से इनके आरंभ और परिग्रह का त्याग करे ।
असत्य वचन, अयाचित स्थान और स्त्री-सेवा ये लोक में कर्मबन्ध के कारण हैं, यह जान कर भिक्षु इनका त्याग करे ।
कपट, लोभ, क्रोध और अहंकार को कर्म-बन्ध का हेतु जान कर भिक्षु इनका त्याग करे ।
सुगन्ध, पुष्पमाला, स्नान, दातुन, परिग्रह और स्त्री-संग्रहादि कामों का भिक्षु त्याग करे ।
भिक्षु के उद्देश से बनाये गए, खरीदे गए, माँगकर लाये गए और स्थानान्तर से सामने लाये गए आहारादि को दूषित और अकल्पनीय समझ कर भिक्षु उनका त्याग करे ।
पौष्टिक रसायन, नेत्राञ्जन, रसलोलुपता, परोपघातक स्नान-विलेपनादि को कर्म-बन्ध का कारण जान कर भिक्षु इनका त्याग करे ।
असंयतों के साथ पर्यालोचना, उनके कामों की प्रशंसा, ज्योतिषनिमित्त संबन्धी प्रश्नों के उत्तर और गृहस्वामी के यहाँ भोजन इत्यादि का विद्वान् भिक्षु त्याग करे ।
भिक्षु जुआ खेलना न सीखे, धर्म विरुद्ध वचन न बोले, किसी के साथ मारा- मारी अथवा विवाद न करे ।
जूता, छाता, पंखा, नालिका और अन्योन्य-क्रिया इन सबका भिक्षु त्याग करे ।
मुनि हरी घास पर मल-मूत्र न करे और न वहाँ जलशौच करे ।
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