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श्रमण भगवान् महावीर
जगत् की स्थूल वस्तुओं में अवस्था परिवर्तन होता रहता है और जगत् के पदार्थ अवस्थान्तर को प्राप्त होते हैं ।
'सब प्राणी दुःख से डरते हैं, इसलिये वे अहिंस्य है' इस अहिंसा के सिद्धान्त को जानते हुए ज्ञानी के ज्ञान का यही सार है कि वह किसी की हिंसा न करे ।
आचार-मार्ग में रहता हुआ और आसक्ति का त्याग करता हुआ भिक्षु चलने-फिरने, सोने-बैठने और खाने-पीने में विवेक रक्खे । इन तीनों ही बातों में निरंतर संयम रखनेवाले, गर्व, क्रोध, कपट और लोभ के त्यागी, पाँच संवरों से संवृत और गृहस्थों के मोह-पाश से दूर रहते हुए भिक्षु को मोक्ष के लिए सदा प्रवृत्त रहना चाहिये ।।
धर्म्य-श्रुत
जम्बू ने पूछा-बुद्धिमान् ब्राह्मण (महावीर) ने कौनसा धर्म कहा है ?
सुधर्मा बोले-जिनों का जो सरल और यथातथ्य धर्म है, उसे कहता हूँ, सुनो ।
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, चण्डाल, बुक्कस, एषिक, वैशिक, शूद्र और अन्य कोई भी जीव जो आरंभ और परिग्रह में मग्न हैं वे बैर बढ़ा रहे हैं । उनकी इच्छायें आरंभपूर्ण होने से वे दुःख से छुटकारा नहीं पाते ।
परिग्रहधारी के मरते ही उसके विषयाभिलाषी ज्ञातिजन मरणकृत्य करने के अनन्तर उसका धन कब्जे में कर लेते हैं और कर्मों का फल कमानेवाला भोगता है।
अपने कर्मों से मरते हुए की रक्षा के लिए माता, पिता, भाई, स्त्री और सगे भाई कोई समर्थ नहीं, इस परमार्थ को जानता हुआ भिक्षु धन, पुत्र,
१. सूत्रकृताङ्ग श्रु० १, अ० १, उ० ४, प० ४७-५१ ।
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