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प्रवचन
२३३ हैं इसे 'ब्रह्मा' ने बोया है। किसी के मत से लोक ईश्वरकृत है और किसी के मत से प्रधानकृत ।
कुछ मतवादी कहते हैं कि इस सचराचर लोक को 'स्वयंभू' ने बनाया है और मार के माया-विस्तार के कारण वह 'अशाश्वत' है ।।
दूसरे ब्राह्मण-श्रमण कहते हैं—यह जगत् अण्डे से उत्पन्न हुआ है ।
इस प्रकार ब्रह्मा के द्वारा अण्डादि क्रम से सृष्टिरचना बताते हुए वे वास्तव में मृषाभाषण करते हैं । लोकरचना के संबन्ध में सिद्धान्त प्रतिपादन करनेवाले इस तत्त्व को नहीं जानते कि 'लोक' अपने पर्यायरूप से ही 'कृत' है और उसी रूप से "विनाशी' भी । कारणरूप से यह न 'कृत' है, न "विनाशी' । दुःख भी असदनुष्ठानजन्य है, न कि ईश्वरकृत । जिनको दुःखोत्पत्ति का कारण ही अज्ञात है वे दुःखमार्ग को रोकना कैसे जानेंगे ?
किन्हीं का यह भी कथन है कि 'आत्मा' स्वयं 'शुद्ध' और 'निष्पाप' है पर क्रीडा अथवा द्वेष के वश होकर वह कर्म-लिप्त हो जाती है, पर मुनि होकर कर्मद्वारों को रोकने से वह फिर 'निष्पाप' हो जाती है। जिस प्रकार स्थिर रहने से पानी स्वच्छ हो जाता है और हिलने-डोलने से मलिन । ठीक यही दशा आत्मा की भी है । संवरभाव से वह निर्मल होती है और रागद्वेष से समल ।
बुद्धिमान् मनुष्य समझ ले कि इस प्रकार स्वमत का समर्थन करनेवाले मतवादी ब्रह्मचर्य-प्रधान संयमानुष्ठान में प्रवृत्ति नहीं करते । यद्यपि वे सब अपने-अपने मत का समर्थन करते हुए यही कहते हैं कि हमारा मत स्वीकार करने से ही सिद्धि है, अन्यथा नहीं । हमारे अनुयायी मोक्षप्राप्ति के पहले ही स्ववश होकर सब इष्ट सिद्धियों को प्राप्त करते हैं और अन्त में मुक्ति प्राप्त कर सर्वथा कर्मरोगों से दूर हो जाते हैं । इस प्रकार सिद्धि को आगे करके अपने अभिप्रायों को पुष्ट करते हैं, पर कर्म-बन्ध के द्वारों को न रोकने से वे दीर्घकाल तक संसार के नीच स्थानों में भ्रमण किया करेंगे ।
१. सूत्रकृताङ्ग श्रु. १, अ० १. उ० ३, प० ४१ ४७ ।
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