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श्रमण भगवान् महावीर
एक और दर्शन है जो क्रियावादी दर्शन कहलाता है, पर इसके अनुयायियों में कर्म की चिन्ता नहीं है । वे कहते हैं-बुद्धि से मानसिक हिंसा करने पर भी जबतक शरीर से हिंसा नहीं होती, कोई पाप नहीं लगता । इसी तरह अज्ञानता से शरीर से हिंसा हो जाने पर भी कोई पाप नहीं । उनके मत में कर्मबन्ध तीन कारणों से होता है-विचारपूर्वक स्वयं हिंसा करने से, विचारपूर्वक आज्ञा देकर अन्य से हिंसा कराने से और हिंसाकारी का विचारपूर्वक अनुमोदन करने से । कुछ भी करो, जिसका भाव विशुद्ध होगा वह निर्वाण प्राप्त कर लेगा । हितबुद्धि से पिता पुत्र को मार कर उसका माँस खा जाय अथवा भिक्षु उसका भोजन कर ले तथापि यदि उनका मन शुद्ध होगा तो पाप का लेप नहीं लगेगा । जो मन से द्वेष करते हैं उनका चित्त शुद्ध नहीं होता । बिना चित्त-शुद्धि के संवरभाव नहीं आता ।
इस दृष्टिवाले शारीरिक सुख के उपासक हैं । वे इसी को शरण समझते हुए पाप का सेवन करते हैं । जिस प्रकार जात्यन्ध मनुष्य सच्छिद्र नाव में बैठ कर पार होने की इच्छा करता हुआ भी बीच में ही दुःख पाता है, उसी प्रकार कई एक मिथ्यादृष्टि श्रमण संसार से पार होने की इच्छा करते हुए भी संसार में ही भ्रमण करते रहते हैं ।
भक्त के द्वारा अतिथि के निमित्त बनवाया हुआ भोजन तो क्या, उसके सहस्रांश से मिश्रित भोजन करनेवाला भिक्षु भी आचार में नहीं चलता ।
भोजन के दोषों को न जाननेवाले और कर्मबन्ध के सिद्धान्तों में अप्रवीण, ऐसे वर्तमान सुख के अभिलाषी कतिपय श्रमण उन वैशालिक मत्स्यों की तरह विनाश को प्राप्त होंगे, जो जल-प्रवाह के साथ स्थानच्युत होकर मांसार्थी ढंक और कंक पक्षियों से दुःख पाते हैं ।
एक और अज्ञान है । कोई कहते हैं कि यह लोक 'देव' का बोया हुआ है । अन्य कहते
१. सूत्रकृताङ्ग श्रु० १, अ० १, उ० २. प० २९-३९ ।
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