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प्रवचन
२३१ में तो शंका करते हैं और आरंभादि शंकनीय कामों में निरशंकतया प्रवृत्ति करते हैं । परिणाम इसका यह होता है कि लोभ, अहंकार, कपट और क्रोध का त्याग कर वे आत्मा को कर्म-मुक्त नहीं कर सकते और जबतक मुक्ति का उपाय नहीं जानते तबतक भयभ्रान्त मृगों की तरह वे अनन्त समय तक मरण के दुःखों को भोगा करेंगे ।
वे कहते हैं-श्रमण और ब्राह्मण सब कोई अपना-अपना ज्ञान सत्य प्रमाणित करते हैं, तथापि सम्पूर्णलोक में जो प्राणधारी हैं उनके विषय में वे कुछ नहीं जानते । जैसे आर्यभाषानभिज्ञ म्लेच्छ आर्य की बोली का अनुकरण कर सकता है, पर वह उसका तात्पर्य नहीं समझता, वैसे ही सब मतवादी अपना-अपना ज्ञान कहते हैं पर म्लेच्छ की तरह वे अज्ञानी उसका निश्चयार्थ नहीं जानते । इस प्रकार सभी को अज्ञानी कहनेवाले और अपने आपको भी अज्ञानी माननेवाले अज्ञानियों को तर्क करने का अधिकार ही क्या है, क्योंकि अज्ञान से तो उनके तर्क का निर्णय होगा नहीं और ज्ञान को वे मानते नहीं । इस प्रकार जो अपने ही सिद्धान्त का प्रतिपादन करने में समर्थ नहीं होते वे दूसरों का अनुशासन क्या करेंगे ? जंगल में भूला हुआ प्राणी भूले हुए का अनुगमन करके इष्ट स्थान को नहीं पाता, किन्तु दोनों घोर कष्ट को प्राप्त होते हैं । इस प्रकार अज्ञानी आप भूले हुए हैं और अनुयायियों को भुलाते हैं ।
जैसे स्वयं अन्धा मनुष्य दूसरे अन्धे को ठीक रास्ते से नहीं ले जा सकता वैसे ही अज्ञानी अपने को मोक्षाभिलाषी और धर्माराधक मानते हुए भी अपने अनुयायियों को सरल मार्ग पर न ले जाकर अधर्म के मार्ग पर चढ़ाते हैं ।
इस प्रकार कई दुर्बुद्धि मतवादी अपने-अपने तर्कवाद को निर्दोष मान कर उस पर डटे रहते हैं, पर अन्य की सेवा कर तत्त्व की खोज नहीं करते । केवल तर्क-साधना से ही धर्म-अधर्म का ज्ञान नहीं होता और दु:ख के बन्धन नहीं टूटते । विचार ही विचार करने से पक्षी पिंजरे से नहीं छूट सकता ।
अपनी-अपनी प्रशंसा और दूसरों के वचन की निन्दा कर जो अपनी विद्वत्ता बताते हैं, वे संसार में अपना भ्रमण बढ़ाते हैं ।
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