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श्रमण भगवान् महावीर श्रेष्ठता बता रहे हैं वे धर्म के ज्ञाता नहीं । उनकी उन्नति नहीं हो सकती । वे संसार, गर्भ, जन्म, दुःख और मार को नहीं जीत सकते । ऐसे जीव इस जरा - मरण और व्याधि से पूर्ण संसारचक्र में बार-बार अनेक दुःखों का अनुभव करते हैं और अनन्त बार ऊँच-नीच गतियों में गर्भावास के दुःख प्राप्क करेंगे । ऐसा ज्ञातपुत्र महावीर कहते हैं ।
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किन्हीं का कथन है— जीव प्रत्येक शरीर में भिन्न-भिन्न है, यह सत्य है । वे सुख दुःख का अनुभव करते और मर कर फिर जन्म लेते हैं, यह भी सही है । परन्तु वह सुख दुःख न स्वकृत होता है न अन्यकृत । कारणिक अथवा अकारणिक किसी भी प्रकार का सुख दुःख स्वयंकृत अथवा अन्यकृत नहीं होता, किन्तु वह सब नियत होता है ।
इस प्रकार बोलनेवाले मतवादी अपने को पंडित मानते हुए भी मूर्ख हैं । वस्तुतः नियत क्या है और अनियत क्या इसे उन्होंने समझा ही नहीं । परन्तु आश्चर्य तो यह है कि सब कुछ नियतिवश मानते हुए भी वे दुःख से छूटने के लिये साधना करते हैं । तो क्या इस प्रकार अज्ञान - कष्ट सहन करने से वे नियत दुःख से छूट सकते हैं ? कभी नहीं ।
जिस प्रकार बड़ी तेजी से दौड़ते हुए भयभीत मृग अशंकनीय पदार्थों पर शंका करते हैं और वास्तविक शंकास्थानों में निर्भय होकर दौड़ते हैं, अर्थात् रक्षा के उपायों को शंका से देखते हैं और फँसानेवाले पाशों का भय न रखते हुए वे अज्ञान और भय से व्याकुल होकर जहाँ तहाँ भागते हैं । यदि वे बन्धनों से बच कर निकल जायें तो पाश से बच भी सकते हैं, परन्तु अज्ञानी इसे देखते ही नहीं । उनकी आत्मा और बुद्धि अपना हित जानती ही नहीं । वे उन्हीं विषमस्थानों में पहुँचते हैं जहाँ उनको फँसाने के लिये पाश तैयार रहते हैं । परिणामतः वहाँ फँस कर वे विनाश को प्राप्त होते हैं ।
उसी प्रकार कई एक मिथ्यादृष्टि अनार्य श्रमण धर्मप्रज्ञापना जैसी बातों
१. सूत्रकृताङ्ग श्रु० १, अ० १, उद्देशक १, प० १२-२९ ।
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