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प्रवचन
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जाता है।
कोई कहते हैं-जैसे यह पार्थिव स्तूप एक होने पर भी नानारूप दीखता है, वैसे ही यह संपूर्ण लोक 'विद्वान्' मात्र होने पर भी नानारूप दीखाता है । पर ऐसा कहनेवाले मन्दबुद्धि और आरंभ-रसिक हैं । इस प्रकार आत्माऽद्वैत का बहाना कर वे स्वयं पाप करके कठोर दुःख को प्राप्त होते हैं ।
दूसरे कोई कहते हैं--बाल और पण्डित सब की आत्मा भिन्न-भिन्न है, पर वह है इसी भव तक । मरने के बाद फिर उसकी उत्पत्ति नहीं होती क्योंकि पुण्य, पाप अथवा परलोक जैसी कोई वस्तु ही नहीं है । शरीर-नाश के साथ ही तद्गत शरीरी का भी नाश हो जाता है ।
दूसरे कोई कहते हैं—आत्मा 'अकारक' है । वह न कुछ करती है, न कराती है ।
जो लोग ऐसी बातें करते हैं उनके लिये सचमुच ही लोक नहीं है । वे यहाँ अन्धकार में हैं और आगे इससे भी अधिक अन्धकार में जा पड़ेगे ।
कई एक कहते हैं-संसार में कुल छ: पदार्थ हैं, पाँच तो महाभूत और छठा आत्मा । इनके मत में आत्मा और लोक शाश्वत हैं । इनका न कभी नाश होता है, न उत्पत्ति । सब भाव सर्वथा नित्य हैं ।।
कई अज्ञानी केवल पञ्चस्कन्ध का ही अस्तित्व मानते हैं और वह भी क्षणिक । अन्य मतवालों की तरह इनके मत में नित्य अथवा अनित्य किसी भी तरह की आत्मा का अस्तित्व नहीं है ।
कोई कहते हैं-लोक चातुर्धातुक है । वह पृथिवी, पानी, तेजस् और वायु इन चार धातुओं से बना है ।
ये सब मतवादी अपने अपने दर्शन की श्रेष्ठता प्रतिपादन करते हुए कहते हैं कि गृहस्थाश्रमी हो, अरण्यवासी हो चाहे परिव्राजक, जो हमारे इस दर्शन को प्राप्त हुए हैं, वे सब दुःखों से मुक्ति पायेंगे ।
यथार्थ तत्त्व की खोज किये बिना जो वादी अपने-अपने समय की
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