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द्वितीय परिच्छेद
प्रवचन
गुरु-पहले ज्ञान प्राप्त करो, फिर बन्धन को समझ कर तोड़ो ।
शिष्य-भगवान् वीर ने किसे बन्धन कहा है और किसके ज्ञान से वह टूटता है ?
गुरु--जो सचित्त-अचित्त पदार्थ का थोड़ा भी संग्रह करता है अथवा करने की आज्ञा देता है वह दुःख से कभी नहीं छूटता ।
जो स्वयं हिंसा करता है, दूसरों से कराता है अथवा करनेवालों को उत्तेजन देता है वह अपने लिये वैर बढ़ता है ।
जिस कुल में उत्पन्न हुआ अथवा जिनके साथ रहता है उनकी ममता और अन्याय (प्राणियों तथा वस्तुओं) के मोह में फँसा हुआ अज्ञानी मनुष्य अपने अस्तित्व का लोप कर देता है ।
'यह धन और ये भाई, कोई किसी का रक्षक नहीं' संसार की यह स्थिति जान कर ही जीव कर्मों से छुटकारा पाता है ।
कुछ श्रमण-ब्राह्मण उक्त सिद्धान्तों को छोड़ कर काम-भोगों में ही आसक्त हो रहे हैं। उनमें से कुछ कहते हैं--पृथिवी, पानी, अग्नि, वायु, और आकाश इन पञ्चमहाभूतों का ही वास्तविक अस्तित्व है । इन पाँच महाभूतों से एक पदार्थ की उत्पत्ति होती है, जो 'देही' इस नाम से व्यवहृत होता है । परन्तु भूतों के नाश के साथ ही इस 'देही' का भी नाश हो
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