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(७) छठे वर्षावास के दरम्यान राजगृह में मंकाती आदि समृद्ध गृहस्थों की दीक्षाओं से तथा अपनी भावि गति के श्रवण से श्रेणिक के मन पर इतना भारी असर पड़ा था कि उसने नगरजनों को ही नहीं, अपने कुटुम्बीजनों की भी दीक्षा की आम परवानगी दे दी थी। भगवान् ने इस अवसर को लाभदायक पाया और द्वितीय वर्षावास भी राजगृह में करके अपनी उपदेशधारा चालू रक्खी थी । इसका परिणाम जो आया वह प्रत्यक्ष है । श्रेणिक के २१ पुत्रों और १३ रानियों ने एक साथ श्रमणधर्म की दीक्षा ली और अनेक नागरिकजनों ने श्रमण और गृहस्थधर्म का स्वीकार किया, यह परिणाम बताता है कि भगवान् ने राजगृह में कितनी स्थिरता की होगी ।
(८) 'ग' चरित्र के अभिप्राय से भगवान्, राजगृह में विहार कर कौशाम्बी गये थे और मृगावती आदि को दीक्षा दी थी । हमारे विचार से वे उपर्युक्त दो वर्षावास राजगृह में करके ही कौशाम्बी गये थे और मृगावती अंगारवती आदि को दीक्षा दे कर विदेह की तरफ विचरे थे । 'ग' के मत से यह कौशाम्बी का प्रथम समवसरण था । इसी कारण से उन्होंने आनन्दादि श्रावकों के प्रतिबोध का वर्णन इस के बाद किया है, परन्तु वास्तव में जिस समवसरण में मृगावती की दीक्षा हुई थी वह कौशाम्बी का द्वितीय समवसरण था । प्रथम समवसरण में मृगावती ने नहीं, उनकी ननद जयन्ती ने दीक्षा ली थी, ऐसा भगवतीसूत्र के लेख से सिद्ध होता है । चरित्रकारों के घटनाक्रम में से जयन्ती की दीक्षा का प्रसंग छूट जाने से यह भूल हो गई है । इस अवस्था में राजगृह आठवें वर्षावास के बाद कौशाम्बी में मृगावती की दीक्षा का प्रसंग मानना ही प्रमाणिक हो सकता है।
मगध से भगवान् वत्सभूमि में विचरे थे और वहाँ से विदेह में । 'ख' और 'ग' के लेखों में भी यही विधान है कि मृगावती की दीक्षा के बाद भगवान विदेह में विचरे थे । इस दशा में अगला वर्षावास भी विदेह के निकटस्थ केन्द्र वैशाली-वाणिज्यगाँव में होना ही अवसर प्राप्त है ।
(९) भगवती, विपाकश्रुत, उपासकदशा आदि मौलिक सूत्र-साहित्य के वर्णनों से पाया जाता है कि भगवान् पाञ्चाल, सूरसेन कुरु आदि पश्चिम भारत के अनेक देशों में विचरे थे। इस से हमारा अनुमान है कि इसी अवसर
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