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शिष्यों ने भूख-प्यास से बहुत कष्ठ उठाया था । इस से ज्ञात होता है कि भगवान् ग्रीष्मकाल के निकट आने पर वीतभय से निकले होंगे और वर्षाकाल के पहले पहले वे अपने केन्द्र में पहँच गये होंगे और इस अति दीर्घ विहार के बाद उन्होंने सब से निकट के केन्द्र वाणिज्यग्राम में ही वर्षावास किया होगा, यह कहने की शायद ही जरूरत होगी ।।
(६) 'ख' और 'ग' ने चम्पा से भगवान् का बनारस और आलभिका की तरफ विहार करना लिखा है, परन्तु हम देख आए हैं कि चम्पा से भगवान् वीतभय गये थे और वहाँ से वाणिज्यगाँव में वर्षा चातुर्मास्य किया था । इस दशा में चम्पा से सीधा बनारस, आलभिका आदि नगरों में जा कर चुलनीपिता आदि को प्रतिबोध देना असंभव प्रतीत होता है; अत: हमने यह कार्यक्रम वाणिज्यगाँव के वर्षावास के बाद में रक्खा है।
उक्त चरित्रों के कथनानुसार आलभिया से भगवान् का विहार काम्पिल्य की तरफ होता है, परन्तु इतने विहार के बाद आलभिया से राजगृह न जाकर भगवान् काम्पिल्य की तरफ विचरें, यह बात हृदय कबूल नहीं करता । चरित्रों का मत आनन्दादि इस ही श्रावकों का वर्णन एक सिलसिले में करने का होने से उन्होंने आलभिया के बाद भगवान् का काम्पिल्य जाना लिखा है, परन्तु वास्तव में वे आलभिया से राजगृह गये होंगे, क्योंकि एक तो अन्य केन्द्रों से वह निकट पड़ता था, दूसरे वहाँ निर्ग्रन्थ-प्रवचन का प्रचार करने का अनुकूल समय था, सपत्नीक श्रेणिक और उनके पुत्रों की भगवान् के ऊपर अनन्य श्रद्धा हो चुकी थी और पिछले दो वर्षावासों में उन्हें वहाँ पर्याप्त लाभ मिल चुका था । इन बातों पर खयाल करने से यही कहना पड़ता है कि आलभिया से भगवान् का राजगृह जाना ही युक्तिसंगत है । श्रेणिक ने भगवान् के केवलिजीवन के १० वर्ष भी पूरे नहीं देखे थे फिर भी राजगृह के अधिकांश समवसरणों के प्रसंगों में श्रेणिक का नामोल्लेख मिलता है। इससे भी यह सिद्ध होता है कि श्रेणिक के जीवित काल में भगवान् राजगृह में विशेष विचरे थे। इस दशा में आलभिया में चुल्लशतक को प्रतिबोध देने के बाद भगवान् का राजगृह जाना और दो एक वर्षावास वहाँ करना बिलकुल स्वाभाविक प्रतीत होता है ।
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