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शिष्य-सम्पदा
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सिद्धान्त क्या होना चाहिए, इस बात का अचलभ्राता कुछ भी निर्णय कर नहीं सके थे।
__ अचलभ्राता जब महावीर के समवसरण में गये तो भगवान् महावीर ने वेदवचनों का समन्वय करके पुण्य-पाप का अस्तित्व प्रमाणित कर उनकी शंका का समाधान किया और निर्ग्रन्थप्रवचन का उपदेश सुनाकर उन्हें अपना शिष्य बना लिया ।
अचलभ्राता ने छयालीस वर्ष की अवस्था में गार्हस्थ्य का त्याग कर श्रामण्य धारण किया, बारह वर्ष तप-ध्यान कर केवलज्ञान प्राप्त किया और चौदह वर्ष केवली दशा में विचर कर बहत्तर वर्ष की अवस्था में मासिक अनशन कर गुणशील चैत्य में निर्वाण प्राप्त किया । (१०) मेतार्य
श्रमण भगवान् के दसवें गणधर का नाम मेतार्य था । ये वत्सदेशान्तर्गत तुंगिक संनिवेश के रहनेवाले कौडिन्यगोत्रीय ब्राह्मण थे। इनकी माता वरुणदेवा और पिता दत्त नामक थे । मेतार्य भी सोमिल के आमंत्रण पर अपने तीन सौ छात्रों के साथ पावामध्यमा गये थे ।
विद्वान् मेतार्य "विज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय०" इत्यादि वेदवाक्यों से पुनर्जन्म के विषय में शंकाशील थे, परन्तु "नित्यं ज्योतिर्मयो०" इत्यादि श्रुतिपदों से आत्मा का अस्तित्व और "श्रृगालो वै एष जायते" इत्यादि श्रुतियों से उसका पुनर्जन्म ध्वनित होने से इस विषय में वे कुछ भी निश्चय नहीं कर पाते थे ।
श्रमण भगवान् ने मेदार्य को वेदपदों का तात्पर्य समझाने के साथ पुनर्जन्म की सत्ता प्रमाणित की और निर्ग्रन्थप्रवचन का उपदेश करके उनको निर्ग्रन्थ श्रमणपथ का पथिक बनाया ।
मेतार्य ने छत्तीस वर्ष की अवस्था में महावीर का शिष्यत्व अंगीकार किया, दस वर्ष तक तप-जप- ध्यान कर केवलज्ञान प्राप्त किया और सोलह वर्ष केवली जीवन में विचरे । अन्त में भगवान् के निर्वाण से चार वर्ष पहले
श्रमण १५
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