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श्रमण भगवान् महावीर बासठ वर्ष की अवस्था में उन्होंने गुणशील चैत्य में निर्वाण प्राप्त किया । (११) प्रभास
पण्डित प्रभास कौडिन्यगौत्रीय ब्राह्मण थे। इनकी माता अतिभद्रा और पिता बल नामक थे । ये राजगृह में रहते थे और सोमिलार्य के आमंत्रण पर उनके महोत्सव में अपने तीन सौ छात्रों के साथ पावामध्यमा में आये थे ।
प्रभास को आत्मा की मुक्ति के विषय में संदेह था । "जरामर्यं वा एतत्सर्वं यदग्निहोत्रम्" इस श्रुति ने उनके संशय को पुष्ट किया था, परन्तु कुछ वेदपद ऐसे भी थे जो आत्मा की मुक्तदशा का सूचन करते थे । "द्वे ब्रह्मणी वेदितव्ये परमपरं च, तत्र परं सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म" इस श्रुतिवाक्य से आत्मा की बद्ध और मुक्त दोनों अवस्थाओं का प्रतिपादन होता था । इस द्विविध वेदवाणी से प्रभास संदेहशील रहते थे कि आत्मनिर्वाण जैसी कोई चीज है भी या नहीं ?
पण्डित प्रभास को संबोधन कर भगवान् महावीर ने कहा-आर्य प्रभास ! तुमने श्रुतिवाक्यों को ठीक नहीं समझा । "जरामर्यं०" इत्यादि श्रुति से तुम आत्मनिर्वाण के अभाव का अनुमान करते हो, यह ठीक नहीं । यह वेद वाक्य गृहाश्रमी की जीवनचर्या का सूचक है, न कि निर्वाणाभाव का प्रतिपादक । भगवान् के स्पष्टीकरण से प्रभास का संशय दूर हो गया और निर्ग्रन्थ प्रवचन का उपदेश सुनकर वे भगवान् महावीर के शिष्य हो गये ।
प्रभास ने सोलह वर्ष की अवस्था में श्रमणधर्म को अंगीकार किया । आठ वर्ष तक तप ध्यान कर केवलज्ञान प्राप्त किया और सोलह वर्ष केवली दशा में विचरे ।
श्रमण भगवान् महावीर के केवली जीवन के पचीसवें वर्ष गुणशील चैत्य में मासिक अनशनपूर्वक प्रभास ने चालीस वर्ष की अवस्था में निर्वाण प्राप्त किया ।
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