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शिष्य - सम्पदा
मंडिक को आर्हती प्रव्रज्या देकर अपना छठा गणधर बनाया ।
मंडिक ने ५३ वर्ष की अवस्था में प्रव्रज्या ली, ६७ वर्ष की अवस्था में केवलज्ञान प्राप्त किया और भगवान् के जीवनकाल के अन्तिम वर्ष में तिरासी वर्ष की अवस्था में गुणशील चैत्य में निर्वाण प्राप्त किया । (७) मौर्यपुत्र
भगवान् महावीर के सातवें गणधर का नाम मौर्यपुत्र था । मौर्यपुत्र काश्यपगोत्रीय ब्राह्मण थे । इनके पिता का नाम मौर्य और माता का नाम विजयदेवा और गाँव का नाम मौर्य संनिवेश था ।
मौर्यपुत्र भी तीन सौ पचास छात्रों के अध्यापक थे और सोमिलार्य के आमंत्रण से पावामध्यमा में आये थे ।
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मौर्यपुत्र को देवों और देवलोकों के अस्तित्व में संदेह था जो "को जानाति मायोपमान् गीर्वाणानिन्द्रयमवरुणकुवेरादीन्" इत्यादि श्रुतिवचनों के पढ़ने से उत्पन्न हुआ था, परन्तु इसके विपरीत " स एष यज्ञायुधी यजमानोऽञ्जसा स्वर्गलोकं गच्छति" तथा 'अपाम सोमममृता अभूम, अगमन् । ज्योतिः, अविदाम देवान्, किं नूनमस्मांस्तृणवदरातिः किमु धूर्तिरमृतमर्त्यस्य " इत्यादि वैदिक-वाक्यों से देवों का अस्तित्व भी सिद्ध होता था । अतः पण्डित मौर्यपुत्र का चित्त इस विषय में शंकाशील था ।
भगवान् महावीर ने देवों का अस्तित्व सिद्ध करके मौर्यपुत्र के संशय का समाधान किया और निर्ग्रन्थप्रवचन का उपदेश किया जिसे हृदयंगत कर मौर्यपुत्र भगवान् के शिष्य हो गये ।
मौर्यपुत्र ने पैंसठ वर्ष की अवस्था में महावीर का शिष्यत्व स्वीकार किया, उनासी वर्ष की अवस्था में केवलज्ञान पाया और भगवान् के जीवनकाल के अन्तिम वर्ष में पंचानबे वर्ष की अवस्था में मासिक अनशनपूर्वक गुणशील चैत्य में निर्वाण प्राप्त किया ।
(८) अकम्पित
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भगवान् महावीर के अष्टम गणधर का नाम अकम्पित था । अकम्पित
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