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________________ श्रमण भगवान् महावीर भगवान् महावीर ने उक्त वेदवाक्यों का समन्वय करके जन्मान्तर वैसादृश्य सिद्ध करने के साथ सुधर्मा की शङ्का का समाधान किया और निर्ग्रन्थप्रवचन का उपदेश सुना कर उन्हें छात्रगण सहित निर्ग्रन्थमार्ग की दीक्षा दी और अपना पाँचवाँ प्रधान शिष्य बनाया । २२२ सुधर्मा ने पचास वर्ष की अवस्था में प्रव्रज्या ली । वे बयालीस वर्ष पर्यन्त छद्मस्थावस्था में विचरे; महावीर - निर्वाण के बारह वर्ष व्यतीत होनेपर केवली हुए और आठ वर्ष तक केवली अवस्था में रहे । श्रमण भगवान् के सर्व गणधरों में सुधर्मा दीर्घजीवी थे इसीलिए महावीर ने सर्वप्रथम गण - समर्पण सुधर्मा को किया था और अन्यान्य गणधरों ने भी अपने अपने निर्वाण-समय पर अपने गण सुधर्मा के सुपुर्द किये थे । महावीर - निर्वाण से बीस वर्ष के बाद सुधर्मा ने सौ वर्ष की अवस्था में मासिक अनशनपूर्वक गुणशील चैत्य में निर्वाण प्राप्त किया । (६) मंडिक महावीर के छठे गणधर का नाम मंडिक था । मंडिक मौर्यसंनिवेश के रहनेवाले वासिष्ठगोत्रीय विद्वान् ब्राह्मण थे । इनके माता-पिता विजयदेवा और धनदेव थे । वे तीन सौ पचास छात्रों के अध्यापक थे और सोमिलद्विज के आमंत्रण से उनके यज्ञोत्सव पर पावामध्यमा में आये थे । विद्वान् मंडिक के विचार सांख्यदर्शन के समर्थक थे और इसका कारण " स एष विगुणो विभुर्न बध्यते संसरति वा न मुच्यते मोचयति वा न वा एष बाह्यमभ्यन्तरं वा वेद" इत्यादि श्रुति वाक्य थे । इसके विपरीत "न ह वै सशरीरस्य प्रियाप्रिययोरपहतिरस्ति अशरीरं वा वसन्तं प्रियाऽप्रिये न स्पृशतः " इस श्रुतिवाक्य से उन्हें बन्ध- मोक्ष के अस्तित्व का भी विचार आ जाता था । इस कारण से आपका मन किसी एक निश्चय पर नहीं पहुँचता था । श्रमण भगवान् ने वैदिक वाक्यों का समन्वय करके आत्मा का संसारित्व सिद्ध किया और निर्ग्रन्थ प्रवचन का उपदेश देकर छात्रगण सहित Jain Education International .. For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.008068
Book TitleShraman Bhagvana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2002
Total Pages465
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Philosophy
File Size8 MB
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