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________________ शिष्य-सम्पदा २२१ ब्रह्मविधिरञ्जसा विज्ञेयः" इत्यादि श्रुति वाक्यों से ब्रह्मवाद की तरफ झुकी हुई थी, पर साथ ही " द्यावापृथिवी" तथा "पृथिवी देवता, आपो देवता" इत्यादि वैदिक वचनों को देखकर वे दृश्य जगत् को भी मिथ्या नहीं मान सकते थे । इस प्रकार व्यक्त संशयाकुल थे तथापि अपना संदेह किसी को प्रगट नहीं करते थे । श्रमण भगवान् महावीर की सर्वज्ञता की प्रशंसा सुनकर व्यक्त भी भगवान् के समवसरण में गये जहाँ महावीर ने आपकी गुप्त शङ्का को प्रकट किया और वेदपदों के समन्वयपूर्वक द्वैत की सिद्धि कर उसका समाधान किया । अन्त में भगवान् ने निर्ग्रन्थप्रवचन का उपदेश किया और आर्य व्यक्त छात्रगण सहित भगवान् महावीर के शिष्य हो गये । आर्य व्यक्त ने पचास वर्ष की अवस्था में श्रमण धर्म स्वीकार किया, बारह वर्ष तक तप ध्यान करके केवलज्ञान पाया और अठारह वर्ष केवलिपर्याय पाल कर भगवान् के जीवनकाल के अन्तिम वर्ष में अस्सी वर्ष की अवस्था में मासिक अनशन के साथ गुणशील चैत्य में निर्वाण प्राप्त किया । (५) सुधर्मा भगवान् महावीर के पञ्चम शिष्य का नाम सुधर्मा था जो आजकल सुधर्मा स्वामी के नाम से अधिक प्रसिद्ध हैं । वे कोल्लाग संन्निवेश निवासी अग्निवैश्यायनगोत्रीय ब्राह्मण थे । इनकी माता भद्दिला और पिता धम्मिल थे । वे भी पाँच सौ छात्रों के अध्यापक थे और अपने छात्रगण के साथ सोमिलार्य के यज्ञोत्सव में पावामध्यमा आये थे । " पुरुषो वै पुरुषत्वमश्नुते पशवः पशुत्वम्" इत्यादि वैदिक वचनों से सुधर्मा की मति जन्मान्तर सादृश्यवाद के पक्ष में थी पर इसके विपरीत " शृगालो वै एष जायते यः सपुरीषो दह्यते" इत्यादि श्रौत वाक्यों से वे जन्मान्तर के वैसादृश्य का भी निषेध नहीं कर सकते थे । इन द्विविध वचनों से विद्वान् सुधर्मा इस विषय में संशयग्रस्त थे । Jain Education International For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.008068
Book TitleShraman Bhagvana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2002
Total Pages465
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Philosophy
File Size8 MB
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