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श्रमण भगवान् महावीर सात-सात दिन तक निरन्तर बरसेंगे जिससे दग्धप्राय बनी हई इस भारतभूमि पर हरियाली, वृक्ष, लता, ओषधि आदि प्रकट होंगे । भूमि की इस समृद्धि को देखकर मनुष्य गुफा-बिलों से बाहर आकर मैदानों में बसेंगे और मांसाहार को छोड़कर वनस्पतिभोजी बनेंगे । प्रतिदिन उनमें रूप, रंग, बुद्धि, आयुष्य आदि की वृद्धि होगी और उत्सर्पिणी के दुष्षमा समय के अन्त तक वे पर्याप्त सभ्य बन जायेंगे । वे अपना सामाजिक संगठन करेंगे । ग्राम नगर बसाकर रहेंगे । घोड़े, हाथी, बैल आदि का संग्रह करना सीखेंगे । पढ़ना, लिखना, शिल्पकला आदि का प्रचार होगा । अग्नि के प्रकट होने पर भोजन पकाना आदि विज्ञान प्रचलित होंगे । दुष्षमा के बाद दुष्पमसुषमा नामक तृतीय आरक आरम्भ होगा जबकि एक-एक करके फिर चौबीस तीर्थकर होंगे और तीर्थप्रवर्तन कर भारतवर्ष में धर्म का प्रचार करेंगे ।
उत्सपिणी के दुष्पमसुषमा के बाद क्रमशः सुषमदुष्पमा, सुषमा और सुषम-सुषमा नामक चौथा, पाँचवाँ और छठा ये तीन आरे होंगे । इनमें सुषमदुष्षमा के आदि भाग में फिर धर्म-कर्म का विच्छेद हो जायगा । तब जीवों के बड़े-बड़े शरीर और बड़े-बड़े आयुष्य होंगे । वे वनों में रहेंगे और दिव्य वनस्पतियों से अपना जीवन-निर्वाह करेंगे ।
फिर अवसर्पिणी काल लगेगा और प्रत्येक वस्तु का हास होने लगेगा ।
इस एकार अनन्त उत्सर्पिणी अवसर्पिणी इस संसार में व्यतीत हो गईं और होंगी । जिन जीवों ने संसार-प्रवाह से निकल कर वास्तविक धर्म का आराधन किया, उन्हीं ने इस कालचक्र को पार कर स्वस्वरूप को प्राप्त किया और करेंगे ।
कालचक्र का सविस्तर स्वरूप निरूपण करके भगवान् ने संसार के दुःखों और भ्रमणों की भयंकरता दिखाई जिसे सुनकर अनेक भव्य आत्माओं ने संसार से विरक्त हो कर निर्ग्रन्थ - धर्म की शरम ली ।
__ भगवान् महावीर के जीवन का यह अन्तिम वर्ष था । इस वर्ष का वर्षा चातुर्मास्य पावा में व्यतीत करने का निर्णय करके आप राजा हस्तिपाल
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