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श्रमण भगवान् महावीर प्रवाह के आगे जैसे गढ़ छिन्न-भिन्न हो जाता है वैसे ही स्वच्छन्द लोक-प्रवाह के आगे हितकर मर्यादाएँ छिन्न-भिन्न हो जायेंगी । ज्यों-ज्यों समय बीतता जायगा जन-समाज दया-दान-सत्यहीन और कुतीर्थिकों से मोहित होकर अधिकाधिक अधर्मशील होता जायगा ।
उस समय ग्राम श्मशान तुल्य, नगर प्रेतलोक सदृश, भद्रजन दास समान और राजा लोग यमदण्ड समान होंगे । लोभी राजा अपने सेवकों को पकड़ेंगे और सेवक नागरिकों को । इस प्रकार मत्स्यों की तरह दुर्बल सबलों से सताये जायेंगे । जो अन्त में हैं वे मध्य में और मध्य में हैं वे प्रत्यन्त होंगे । बिना पतवार के नाव की तरह देश डोलते रहेंगे । चोर धन लूटेंगे । राजा करों से राष्ट्रों को उत्पीड़ित करेंगे और न्यायाधिकारी रिश्वतखोरी में तत्पर रहेंगे । जनसमाज स्वजनविरोधी, स्वार्थप्रिय, परोपकार-निरपेक्ष और अविचारितभाषी होगा । बहुधा उनके वचन असार होंगे । मनुष्यों की धनधान्य विषयक तृष्णा कभी शान्त नहीं होगी । वे संसार-निमग्न, दाक्षिण्यहीन, निर्लज्ज और धर्मश्रवण में प्रमादी होंगे ।
दुष्षमाकाल के शिष्य गुरुओं की सेवा नहीं करेंगे और गुरु शिष्यों को शास्त्र का शिक्षण नही देंगे । गुरुकुलवास की मर्यादा उठ जायगी । लोगों की बुद्धि धर्म में शिथिल हो जायगी और पृथ्वी क्षुद्रजन्तुओं से भर जायगी । देव पृथ्वी पर दृष्टिगोचर नहीं होंगे । पुत्र मात-पिता की अवज्ञा करेंगे और कटुवचन सुनावेंगे । हास्यों, भाषणों, कटाक्षों और सविलास निरीक्षणों से निर्लज्ज कुलवधुएँ वेश्याओं को भी शिक्षण देंगी । श्रावक-श्राविका और दानशील-तप-भावात्मक धर्म की हानि होगी ।
थोड़े से कारण से श्रमणों और श्रमणियों में झगड़े होंगे । धर्म में शठता और चापलूसी का प्रवेश होगा । झूठे तोल-माप प्रचलित होंगे । बहुधा दुर्जन जीतेंगे और सज्जन दुःख पायेंगे ।
विद्या, मंत्र, तंत्र, औषधि, मणि, पुष्प, फल, रस, रूप, आयुष्य, ऋद्धि, आकृति, ऊँचाई और धर्म इन सब उत्तम पदार्थों का हास होगा और दुष्षम- दुष्पमा नामक छठे आरे में तो इनकी अत्यन्त ही हीनता हो जायगी ।
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