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________________ २०४ आयुष्य कर्म के विषय में प्रश्न गौतम ने कहा— भगवन् ! अन्यतीर्थिक कहते हैं— नियमानुसार गठे हुए और नियत अन्तर पर गाँठोंवाले एक जाल के जैसी अनेक जीवों के अनेक भवसंचित आयुष्यों की रचना होती है । जिस प्रकार जाल में सब गाँठें नियत अन्तर पर रहती हैं और एक दूसरी के साथ संबन्धित रहती हैं, उसी तरह सब आयुष्य एक दूसरे से नियत अन्तर पर रहे हुए होते हैं । इनमें से एक जीव एक समय में दो आयुष्यों को भोगता है— इहभविक और पारभविक । जिस समय इहभविक आयुष्य भोगता है उसी समय पारभविक भी भोगता है । भगवन् ! क्या अन्यतीर्थिकों की यह मान्यता ठीक है ? महावीर - गौतम ! इस विषय में अन्यतीर्थिक जो कहते हैं वह ठीक नहीं है । हमारा मत यह है कि अनेक जीवों के आयुष्य जालग्रन्थियों के आकार के नहीं होते परन्तु एक जीव के अनेक भवों के आयुष्य वैसे हो सकते हैं । तथा एक जीव एक समय में दो आयुष्यों को भोग नहीं सकता किन्तु एक ही को भोग सकता है— इहभविक आयुष्य को अथवा पारभविक आयुष्य कोरे । श्रमण भगवान् महावीर मनुष्यलोक की मानव बस्ती के संबंध में गौतम बोले—- भगवन् ! अन्यतीर्थिक कहते हैं—— जैसे युवा पुरुष अपने हाथ में युवति स्त्री का हाथ पकड़ता है अथवा जिस प्रकार चक्रनाभि से अरक भिड़े रहते हैं, वैसे ही यह मनुष्यलोक चार सौ पाँच सौ योजन तक मनुष्यों से भरा हुआ है । भगवन् ! क्या अन्यतीर्थिकों का यह कथन सत्य है ? महावीर नहीं गौतम ! अन्यतीर्थिकों की यह मान्यता ठीक नहीं है । इस विषय में मेरा कहना यह है कि मनुष्यलोक तो नहीं पर नरक लोक इस प्रकार चार सौ पाँच सौ योजन पर्यन्त नारकजीवों से ठसाठस भरा हुआ रहता है । Jain Education International १४१ । १. भ० श० २, उ० ५, पृ० २. भ० श० ५ उ० ३, प० २१४ । ३. भ० श०५, उ० ६, प० २३० । For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.008068
Book TitleShraman Bhagvana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2002
Total Pages465
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Philosophy
File Size8 MB
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