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श्रमण भगवान् महावीर हैं, परन्तु वे स्कन्ध अशाश्वत होते हैं और नित्य ही उनमें हानि-वृद्धि होती रहती है ।
__ "भाषा के विषय में भी अन्यतीर्थिकों के विचार प्रामाणिक नहीं हैं । इस विषय में मेरा सिद्धान्त यह है कि बोली जानेवाली अथवा बोली गई भाषा 'भाषा' नहीं, पर बोली जाती भाषा ही 'भाषा' है । और वह भाषा 'अभाषक' की नहीं, पर 'भाषक' की होती है ।
"क्रिया की दुःखरूपता के संबन्ध में भी अन्यतीर्थिकों की मान्यता यथार्थ नहीं । पहले या पीछे क्रिया दुःखरूप नहीं होती, किन्तु क्रियाकाल में ही वह दुःखात्मक होती है और वह भी अकरणरूप से नहीं, करणरूप से दुःखात्मक होती है ।
"गौतम ! जो लोग दुःख को 'अकृत्य' और 'अस्पृश्य' कहते हैं वे भी मिथ्यावादी हैं । दुःख 'कृत्य' और 'स्पृश्य' है, क्योंकि संसारी जीव उसको बनाते, छूते और भोगते हैं, यह कहना चाहिए।" एक समय में दो क्रियाओं के विषय में
गौतम ने कहा-भगवन् ! अन्यतीर्थिक कहते हैं-एक जीव एक समय में ईर्यापथिकी और सांपरायिकी इन दो क्रियाओं को करता है । जिस समय में ईर्यापथिकी करता है उसी समय में सांपरायिकी भी करता है और जिस समय में सांपरायिकी करता है उसी समय में वह ईर्यापथिकी भी करता है । अर्थात् ईर्यापथिकी करता हुआ सांपरायिकी और सांपरायिकी करता हुआ ईर्यापथिकी करता है । इस प्रकार अन्यतीर्थिक एक समय में दो क्रियाओं के करने की बात कहते हैं, सो क्या यह कथन ठीक है ?
महावीर-नहीं गौतम ! अन्यतीर्थिकों का यह कथन ठीक नहीं है । इस विषय में मेरा मत यह है कि एक जीव एक समय में एक ही क्रिया करता है-ईर्यापथिकी अथवा सांपरायिकी । जिस समय वह ईर्यापथिकी क्रिया करता है, उस समय सांपरायिकी नहीं करता और सांपरायिकी करने
१. भ० श० १, उ० १०, प० १०२-१०३ ।
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