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________________ १९७ तीर्थंकर-जीवन (५) दुःख की अकृत्रिमता के विषय में "अन्यतीर्थिक कहते हैं-दुःख को कोई बनाता नहीं है और न कोई उसे छूता है। प्राणिमात्र बिना किए ही दुःखों का अनुभव करते हैं, यह कहना चाहिये । भगवन् ! अन्यतीर्थिकों के ये मन्तव्य क्या सत्य हैं ?" महावीर-"गौतम ! अन्यतीर्थिकों का यह कथन कि 'चलमान चलित नहीं होता' ठीक नहीं है । इस विषय में मैं कहता हूँ कि "चलेमाणे चलिए" अर्थात् चलने लगा वह चला क्योंकि प्रत्येक समय की क्रिया अपने कार्य की उत्पत्ति के साथ समाप्त होती है । इससे सिद्ध हुआ कि क्रियाकाल और निष्ठाकाल एक है, अत: 'चलेमाणे' शब्द से सूचित 'वर्तमान' और 'चलिए' से ध्वनित 'भूत' काल वास्तव में भिन्न नहीं हैं । अतएव 'चलत्' और 'चलित' भी एक ही कार्य के "साध्यमान' और 'सिद्ध' ऐसे दो भिन्न रूप हैं । यही बात 'उदीर्यमाण उदीरित, वेद्यमान वेदित, हीयमान हीन, छिद्यमान छिन, भिद्यमान भिन्न, दह्यमान दग्ध, म्रियमाण मृत और निर्जीर्यमाण निर्जीर्ण के संबन्ध में भी समझनी चाहिए । ___ "गौतम ! परमाणुओं के मिलने-बिखरने के संबन्ध में भी अन्यतीर्थिकों की मान्यता ठीक नहीं है । इस विषय में मेरा मत यह है कि दो परमाणु भी एकत्र जुट सकते हैं, क्योंकि दो परमाणुओं में भी उन्हें जोड़नेवाली स्निग्धता विद्यमान होती है । मिले हुए दो परमाणुओं को तोड़ने पर फिर वे एक एक कर के जुदा हो जाते हैं । इसी तरह तीन परमाणु भी आपस में मिल सकते हैं और तोड़ने पर फिर वे एक एक कर के जुदा हो जाते हैं। "तीन परमाणु भी आपस में मिल सकते हैं और तोड़ने पर जुदा हो जाते हैं। तीन परमाणुओं के स्कन्ध को तोड़ कर यदि उसके दो विभाग किए जायँ तो एक भाग में एक परमाणु रहेगा और एक में दो । इन्हीं तीन परमाणुओं के स्कन्ध को तोड़ कर तीन भाग किए जायँ तो एक एक परमाणु का एक एक भाग होगा । "इसी प्रकार चार, पाँच आदि परमाणु एकत्र मिल कर स्कन्ध बनते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.008068
Book TitleShraman Bhagvana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2002
Total Pages465
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Philosophy
File Size8 MB
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