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श्रमण भगवान् महावीर
साथ भगवान् महावीर की धर्मसभा में पहुँचा । भगवान् के छत्रातिछत्र और सिंहासनादि दिव्य प्रातिहार्यो को देखकर किरातराज चकित हो गया । उसने रत्नों के भेद और उनके मूल्य के संबन्ध में कुछ प्रश्न किए जिनके उत्तर में भगवान् महावीर ने कहा — देवानुप्रिय ! रत्न दो प्रकार के होते हैं - एक भाव - रत्न और दूसरे द्रव्य - रत्न । भाव - रत्नों के मुख्य तीन भेद हैं-दर्शन रत्न, ज्ञान रत्न और चारित्र रत्न ।
भावरत्नत्रयी का विस्तृत वर्णन करके भगवान् ने फरमाया कि ये ऐसे प्रभावशाली रत्न हैं जो धारक की प्रतिष्ठा बढ़ाने के उपरान्त उसके इहलोक - परलोक सम्बन्धी सभी कष्टों को दूर करते हैं । द्रव्यरत्न कैसे भी मूल्यवान् हों, पर उनका प्रभाव परिमित होता है । वे केवल वर्तमान भव में ही सुख देनेवाले होते हैं । भाव - रत्न भवान्तर में भी धारक को सद्गति और सुख देनेवाले हैं ।
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भगवान् का रत्न विषयक व्याख्यान सुन कर किरातराज बहुत संतुष्ट हुआ । वह हाथ जोड़कर बोला- भगवन् ! मुझे भाव - रत्न दीजिये । भगवान् ने रजोहरण, गुच्छक आदि दे दिये जिनको किरातराज ने सहर्ष स्वीकार किया और निर्ग्रन्थधर्म की प्रव्रज्या लेकर भगवान् के शिष्यगण में प्रविष्ट हो गया' ।
भगवान् ने साकेत से आगे पाञ्चाल की ओर विहार कर दिया और कुछ समय काम्पिल्य में ठहरे । काम्पिल्य से सूरसेन की ओर पधारे और मथुरा, शौर्यपुर, नन्दीपुर आदि नगरों में विचर कर वापस विदेहभूमि को लौटे उन्होंने इस वर्ष वर्षावास मिथिला में किया ।
३७. सैंतीसवाँ वर्ष (वि० पू० ४७६ - ४७५)
चातुर्मास्य समाप्त होने पर भगवान् ने मगध की ओर विहार किया प्रत्येक ग्राम और नगर में निर्ग्रन्थ प्रवचन का उपदेश करते हुए आप राजगृह पधारे और गुणशील चैत्य में समवसरण हुआ ।
१. आवश्यक सूत्र हारिभद्रीयवृत्ति, प० ७१५--७१६ ।
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