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तीर्थंकर - जीवन
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रहनेवाला जिनदेव श्रावक दिशायात्रा करता हुआ कोटिवर्ष नामक नगर में पहुँचा । उन दिनों वह म्लेच्छों का देश था । कोटिवर्ष का राजा किरात था । व्यवहारार्थ आये हुए सार्थवाह जिनदेव ने किरातराज को ऐसे वस्त्र, मणि और रत्न भेंट किए जो अन्य किसी के कोष में नहीं थे ।
अदृष्टपूर्व वस्तुओं को पाकर किरातराज बोला- अहा ! क्या सुन्दर रत्न हैं ! भला ऐसे रत्न कहाँ उत्पन्न होते हैं !
जिनदेव — ये और इनसे भी बढ़ाया रत्न हमारे देश में उत्पन्न होते हैं ।
किरातराज — इच्छा तो यह होती है कि मैं स्वयं तुम्हारे देश में चल कर रत्नों को देखूँ, परन्तु मैं तुम्हारे राजा से डरता हूँ ।
जिनदेव - हमारे राजा से आप को डरने की कोई बात नहीं है । फिर भी आप चाहें तो मैं उनकी आज्ञा मँगवा लूँ । यह कह कर जिनदेवने इस बारे में अपने राजा को पत्र द्वारा पूछा जिसके उत्तर में साकेतराज ने लिखा कि किरातराज के आने में कोई आपत्ति नहीं है ।
साकेतराज की आज्ञा पाकर किरातराज जिनदेव के साथ साकेत गया और उसी का अतिथि होकर रहा ।
इस अवसर पर भगवान् महावीर साकेत के उद्यान में पधारे । पवनवेग से नगर में भगवान् के आगमन के समाचार पहुँचे । साकेतराज शत्रुञ्जय सपरिवार महोत्सवपूर्वक भगवान् के पास गया । नागरिकगण भी अपने अपने कुटुम्ब - परिवार के साथ भगवान् के समवसरण में जाने के लिए उद्यत हुए । यह चहल-पहल देखकर किरातराज बोला- सार्थवाह ! ये सब कहाँ जा रहे हैं ?
जिनदेव — राजन् ! आज यहाँ पर वह रत्नों का व्यापारी आया है जो संसार के सबसे बढ़िया रत्नों का मालिक है ।
किरातराज — मित्र ! तब तो बहुत ही अच्छा हुआ । हम भी चलें और बढ़िया से बढ़िया रत्नों को देख लें । यह कह कर किरातराज जिनदेव के
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