________________
१८८
श्रमण भगवान् महावीर गौतम-आनन्द ! श्रमणोपासक को अवधिज्ञान होता अवश्य है पर वह इतना दूरग्राही नहीं होता जितना कि तुम बतला रहे हो । आर्य ! इस भ्रान्त कथन का तुम्हें आलोचनापूर्वक प्रायश्चित्त करना चाहिये ।
आनन्द-भगवन् ! क्या जैन प्रवचन में सत्य प्ररूपण करने में भी प्रायश्चित्त का विधान है ?
गौतम–नहीं आनन्द ! ऐसा नहीं है ।
आनन्द-तब तो भगवन् ! आप ही प्रायश्चित्त कीजिये क्योंकि आपने ही मेरे कथन का प्रतिवाद करते हुए असत्य प्ररूपणा की है।
आनन्द की इस बात से गौतम के हृदय में गहरी शंका उत्पन्न हो गई । वे दूतिपलास गये और भगवान् महावीर के पास जाकर भिक्षाचर्या की आलोचना के उपरान्त आनन्द के विषय में पूछा-भगवन् ! इस विषय में आनन्द को आलोचना-प्रायश्चित्त करना चाहिये या मुझे ?
___ भगवान् गौतम ! इस विषय में तुम्हीं को प्रायश्चित्त करना चाहिये और आनन्द से क्षमा प्रार्थना करनी चाहिये ।
भगवान् महावीर की आज्ञा पाते ही गौतम आनन्द के पास गये और अपनी भूल का मिथ्यादुष्कृत कर के आनन्द से क्षमा प्रार्थना की ।
इस साल का वर्षा चातुर्मास्य भगवान् ने वैशाली में व्यतीत किया । ३६. छत्तीसवाँ वर्ष (वि० पू० ४७७-४७६)
चातुर्मास्य समाप्त होने पर भगवान् ने वैशाली से कोशलभूमि की तरफ प्रयाण किया और प्रत्येक ग्राम और नगर में निर्ग्रन्थ प्रवचन का उपदेश करते हुए साकेत नगर पहुँचे । कोटिवर्ष नगर के किरातराज की प्रव्रज्या
साकेत कोशलभूमि के प्रसिद्ध नगरों में से एक था । वहाँ का
१. उपासकदशा, अध्ययन १, प० १-१९ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org