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श्रमण भगवान् महावीर
उक्त सब प्रकार के जीव यहाँ 'त्रस' हैं और मर कर फिर त्रस होते । ये सर्व सजीव श्रमणोपासक के व्रत के विषय हैं ।
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कितने ही श्रमणोपासक अधिक व्रत नियम नहीं पाल सकते, फिर भी वे 'देशावकाशिक' व्रत ग्रहण करते हैं । अमुक नियमित सीमा से बाहर जाने आने का प्रत्याख्यान करते हैं । उनके व्रत का विषय नियमित हद के बाहर के जीव तो हैं ही, परन्तु हद के भीतर भी जो त्रस जीव हैं, या त्रस मर कर फिर स होते हैं अथवा स्थावर मर कर त्रस होते हैं और स्थावर जीव भी जिनकी निरर्थक हिंसा का श्रमणोपासक त्यागी होता है, श्रमणोपासक के व्रत के विषय हैं ।
निर्ग्रन्थो ! यह बात कदापि नहीं हो सकती कि सब त्रस जीव मिट कर स्थावर हो जायँ अथवा स्थावर मिट कर त्रस । जब संसार की स्थिति ऐसी है तो फिर 'कोई ऐसा पर्याय नहीं जो श्रमणोपासक के व्रत का विषय हो' यह कथन क्या उचित होगा ? और ऐसी बातों को लेकर मतभेद खड़ा करना क्या न्यायानुगत है ?
आयुष्मन् उदय ! मैत्री बुद्धि से भी जो श्रमण-ब्राह्मण को निन्दा करता है वह ज्ञान - दर्शन - चारित्र को पाकर भी परलोक की आराधना में विघ्न डालता है । जो गुणी श्रमण-ब्राह्मण की निन्दा न करके उसको मित्र भाव से देखता है वह ज्ञान, दर्शन और चारित्र को पाकर परलोक का सुधार करता है ।
गौतम का विस्तृत विवेचन और हितवचन सुन कर निर्ग्रन्थ उदय वहाँ से चलने लगा तब गौतम ने कहा- आयुष्मन् उदय ! विशिष्ट श्रमण-ब्राह्मण के मुख से एक भी आर्य- धार्मिक वचन सुन कर अपनी तीक्ष्ण बुद्धि के बल से योग-क्षेम को प्राप्त करनेवाला मनुष्य उस आर्यधार्मिक वचन के उपदेश का देव की तरह आदर करता है ।
उदय — आयुष्मन् गौतम ! इन पदों का मुझे पहले ज्ञान नहीं था । इस कारण इस विषय में मेरा विश्वास नहीं जमा । परन्तु अब इन पदों को सुना और समझा है । अब मैं इस विषय में श्रद्धा करता हूँ ।
गौतम—आयुष्मन् उदय ! इस विषय में तुम्हें अवश्य ही श्रद्धा और
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