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तीर्थंकर-जीवन
१८३ गौतम-निर्ग्रन्थो ! यदि वह श्रमण बना हुआ परिव्राजक गृहस्थ हो जाय तो उसके साथ भोजनादि व्यवहार किया जायगा ?
निर्ग्रन्थ-नहीं, फिर उसके साथ वैसा कोई भी व्यवहार नहीं किया जा सकता ।
गौतम-निर्ग्रन्थो ! वही यह जीव है जिसके साथ पहले भोजन किया जा सकता था, पर अब नहीं किया जा सकता क्योंकि पहले वह श्रमण था, पर अब वैसा नहीं है। इसी तरह बस में से स्थावरकाय में गया हुआ जीव त्रसहिंसा-प्रत्याख्यानी के प्रत्याख्यान का विषय नहीं है, यही समझना चाहिये ।
उपयुक्त अनेक दृष्टान्तों से गौतम ने निर्ग्रन्थ उदय की 'त्रस मर कर स्थावर हो और वहाँ उसकी हिंसा हो तो श्रमणोपासक के प्रत्याख्यान का भंग होता है' इस मान्यता का निरसन किया ।
'सब जीव स्थावर हो जायेंगे तब त्रस प्रत्याख्यानी का व्रत निर्विषय होगा' इस प्रकार के उदय के तर्क का खण्डन करते हुए गौतम ने कहाजो श्रमणोपासक देशविरति-धर्म का पालन कर के अन्त में अनशनपूर्वक समाधिमरण से मरते हैं अथवा जो श्रमणोपासक प्रथम विशेष व्रत-प्रत्याख्यान का पालन नहीं कर सकते पर अन्त में अनशनपूर्वक समाधि-मरण करते हैं, उनका मरण कैसा समझना चाहिये ?
निर्ग्रन्थ-इस प्रकार का मरण प्रशंसनीय माना जाता है ।
गौतम-जो जीव इस प्रकार के मरण से मरते हैं वे त्रस-प्राणी के रूप में ही उत्पन्न होते हैं और ये ही बस जीव श्रमणोपासक के व्रत के विषय हो सकते हैं। बहुत से मनुष्य महालोभी, महारम्भी और परिग्रहधारी अधार्मिक होते हैं जो अपने अशुभ कर्मों से फिर अशुभगतियों में उत्पन्न होते हैं । अनारम्भी साधु और अल्पारम्भी धार्मिक मनुष्य मर कर शुभ गतियों में जाते हैं । आरण्यक, आवसथिक, ग्रामनियंत्रिक और राहसिक आदि तापस मर कर भवान्तर में असुरों की गतियों में उत्पन्न होते हैं और वहाँ से निकल कर फिर मनुष्य गति में गूंगे बहरे मनुष्य का भव पाते हैं । दीर्घायुष्क, समायुष्क अथवा अल्पायुष्क जीव मर कर फिर त्रसरूप में उत्पन्न होते हैं ।
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