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________________ १८० श्रमण भगवान् महावीर लगाते हैं । यहीं नहीं, बल्कि प्राणी-विशेष की हिंसा को छोड़नेवालों को भी वे दोषी ठहराते हैं क्योंकि प्राणी संसारी हैं, वे त्रस मिट कर स्थावर होते हैं और स्थावर मिट कर त्रस । फिर वे त्रसकाय से निकल कर स्थावर में जाते हैं और स्थावरकाय से त्रस में । संसारी जीवों की यह स्थिति है । इस वास्ते जब वे त्रसकाय में उत्पन्न होते हैं तब त्रस कहलाते हैं और तभी त्रस हिंसा का जिसने प्रत्याख्यान किया है उस के लिए वे 'अघात्य' होते हैं । इसलिये प्रत्याख्यान में 'भूत' विशेषण जोड़ने की जरूरत नहीं है । उदक-आयुष्मन् गौतम ! तुम 'त्रस' का अर्थ क्या करते हो ? 'त्रसप्राण सो त्रस' यह अथवा दूसरा ? गौतम-आयुष्मन् उदक ! जिन जीवों को तुम 'त्रसभूतप्राण' कहते हो उन्हींको हम 'त्रसप्राण' कहते हैं । और जिन्हें हम 'त्रसप्राण' कहते हैं उन्हींको तुम 'त्रसभूतप्राण' कहते हो । ये दोनों तुल्यार्थक हैं, परन्तु आर्य उदक ! तुम्हारे विचार में इन दो में 'त्रसभूतप्राण त्रस' यह व्युत्पत्ति निर्दोष है और 'त्रसप्राण त्रस' यह सदोष । आयुष्मन् ! जिनमें वास्तविक भेद नहीं है ऐसे दो वाक्यों में से एक का खण्डन करना और दूसरे का मण्डन यह क्या न्याय्य है ? हे उदक ! कितने ऐसे भी मनुष्य होते हैं जो कहते हैं कि हम गृह त्याग कर श्रामण्य धारण करने में समर्थ नहीं हैं । अभी हम श्रावक धर्म स्वीकार करते हैं, क्रमश: चारित्र का भी स्पर्श करेंगे । वे अपनी अविरतिमय प्रवृत्तियों को मर्यादित करते हुए प्रतिज्ञा करते हैं कि 'राजाज्ञा आदि कारण से गृहपति अथवा चोर के बाँधने छोड़ने के अतिरिक्त हम त्रस जीवों की हिंसा नहीं करेंगे ।' यह प्रतिज्ञा भी उनके कुशल का ही कारण है ।। आर्य उदक ! 'त्रस मर कर स्थावर होते हैं अतः त्रसहिंसा के प्रत्याख्यानी के हाथ से उनकी हिंसा होने पर उसके प्रत्याख्यान का भंग हो जाता है' यह तुम्हारा कथन ठीक नहीं है क्योंकि 'वस नामकर्म' के उदय से ही जीव 'त्रस' कहलाते हैं, परन्तु जब उनका त्रसगति का आयुष्य क्षीण हो जाता है और त्रसकाय की स्थिति को छोड़ कर वे स्थावरकाय में जाकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.008068
Book TitleShraman Bhagvana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2002
Total Pages465
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Philosophy
File Size8 MB
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