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तीर्थंकर-जीवन
१८१ उत्पन्न होते हैं तब उनमें स्थावर नामकर्म का उदय होता है और वे 'स्थावरकायिक' कहलाते हैं । इसी तरह स्थावर कायका आयुष्य पूर्ण कर जब वे त्रसकाय में उत्पन्न होते हैं तब त्रस भी कहलाते हैं, प्राण भी कहलाते हैं । उनका शरीर बड़ा होता है और आयुष्यस्थिति भी लंबी होती है ।
उदय-आयुष्मन् गौतम ! तब तो ऐसा कोई पर्याय ही नहीं मिलेगा जो त्याज्य-हिंसा का विषय हो और जब हिंसा का कोई विषय ही नहीं रहेगा तब श्रावक किसकी हिंसा का प्रत्याख्यान करेगा ? क्योंकि जीव संसारी हैं वे सभी स्थावर मिटकर बस हो जाएँगे और सभी त्रस मिट कर स्थावर भी । अब यदि सब जीव त्रस मिटकर स्थावर हो जायें तो श्रमणोपासक का 'त्रसहिंसा-प्रत्याख्यान' किस प्रकार निभ सकेगा ? क्योंकि जिनकी हिंसा का उसने प्रत्याख्यान किया था वे सब जीव स्थावर हो गये हैं अत: उनकी हिंसा वह टाल नहीं सकता ।
गौतम-आयुष्मन् उदय ! हमारे मत से कभी ऐसा होता ही नहीं कि सब स्थावर त्रस अथवा सब स स्थावर हो जायें । थोड़ी देर के लिये तुम्हारा कथन प्रमाण मान लिया जाय तब भी श्रमणोपासक के त्रसहिंसा-प्रत्याख्यान में बाध नहीं आता क्योंकि स्थावर-पर्याय की हिंसा में उसका व्रत खण्डित नहीं होता और सपर्याय में वह व्रत अधिक त्रस जीवों की हिंसा को टालता है ।
आर्य उदय ! अधिक त्रसजीवों की हिंसा से निवृत्त होनेवाले श्रमणोपासक के लिए 'उसके किसी भी पर्याय की हिंसा का प्रत्याख्यान नहीं है' यह तुम्हारा कथन क्या उचित है ? आयुष्मन् ! इस प्रकार निर्ग्रन्थ प्रवचन में मतभेद खड़ा करना न्याय्य नहीं है।
इस समय पार्खापत्य अन्य स्थविर भी वहाँ आ गये जिन्हें देख कर गौतम ने कहा-आर्य उदय ! लो, इस विषय में तुम्हारे स्थविर निर्ग्रन्थों को ही पूछ लें । हे आयुष्मन् निर्ग्रन्थो ! इस संसार में कितने ही ऐसे मनुष्य होते हैं जिनकी प्रतिज्ञा होती है कि 'जो ये अनगार साधु हैं इनको जीवनपर्यन्त नहीं मारूँगा ।' बाद में उनमें से कोई साधु चार पाँच वर्ष या ज्यादा कम
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