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तीर्थंकर-जीवन
१७९ एक समय भगवान् महावीर हस्तियाम में ठहरे हुए थे कि शेषद्रविका के पास इन्द्रभूति को मेतार्य गोत्रीय पेढालपुत्र उदक नामक एक पार्खापत्य निर्ग्रन्थ मिले और गौतम को संबोधन कर बोले-गौतम ! तुमसे कुछ पूछना है । आयुष्मान् ! मेरे प्रश्नों का उपपत्तिपूर्वक उत्तर दीजियेगा ।
गौतम-पूछिये ।
उदक-आयुष्मन् गौतम ! तुम्हारे प्रवचन का उपदेश करनेवाले कुमारपुत्रीय श्रमण अपने पास नियम लेने को तैयार हुए श्रमणोपासक को इस प्रकार प्रत्याख्यान कराते हैं
"राजाज्ञा आदि कारण से किसी गृहस्थ अथवा चोर के बाँधने छोड़ने के अतिरिक्त मैं त्रसजीवों की हिंसा नहीं करूँगा ।'
आर्य ! इस प्रकार का प्रत्याख्यान दुष्प्रत्याख्यान है । जो ऐसा प्रत्याख्यान कराते हैं वे दुष्प्रत्याख्यान कराते हैं । इस प्रकार का प्रत्याख्यान करने और करानेवाले अपनी प्रतिज्ञा में अतिचार लगाते हैं क्योंकि प्राणी संसारी हैं । स्थावर मर कर त्रसरूप में उत्पन्न होते हैं और त्रस मर कर स्थावर रूप में भी उत्पन्न हो जाते हैं । इस प्रकार जो जीव 'त्रसरूप' में 'अघात्य' थे वे ही स्थावररूप में उत्पन्न होने के बाद 'घात्य' हो जाते हैं । इस कारण प्रत्याख्यान इस प्रकार सविशेषण करना और कराना चाहिये
'राजाज्ञा आदि कारण से किसी गृहस्थ अथवा चोर के बाँधने छोड़ने के अतिरिक्त मैं त्रसभूत जीवों की हिंसा नहीं करूँगा ।'
इस प्रकार 'भूत' इस विशेषण के सामर्थ्य से उक्त दोषापत्ति टल जाती है । इस पर भी जो क्रोध अथवा लोभ से दूसरों को निर्विशेषण प्रत्याख्यान कराते हैं वह 'न्याय्य' नहीं है।
क्यों गौतम ! मेरी यह बात तुमको ठीक अँचती है कि नहीं ?
गौतम-आयुष्मन् उदक ! तुम्हारी बात मेरे दिल में ठीक नहीं बैठती । मेरी राय में ऐसा करनेवाले श्रमण-ब्राह्मण यथार्थ भाषा नहीं बोलते, वे अनुतापिनी भाषा बोलते हैं और श्रमण तथा ब्राह्मणों के ऊपर झूठा आरोप
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