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तीर्थकर-जीवन
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मढुक-आयुष्मानो ! अरणि-सहगत अग्नि होती है ? अन्यतीर्थिक-हाँ, अरणि-सहगत अग्नि होती है ।
मढुक-आयुष्मानो ! तुम उस अरणि-सहगत अग्नि के रूप को देखते हो ?
अन्यतीर्थिक-नहीं, तिरोहित होने से वह देखा नहीं जाता । मढुक-आयुष्मानो ! समुद्र के उस पार कोई रूप है ? अन्यतीर्थिक-हाँ, समुद्र के उस पार कई रूप हैं ।
मढुक-आयुष्मानो ! समुद्र के उस पार के रूपों को तुम देखते हो ?
अन्यतीर्थिक-नहीं, समुद्र के उस पार के रूप देखे नहीं जा सकते ।
महुक-आयुष्मानो ! देवलोकगत रूपों को तुम देख सकते हो ? अन्यतीर्थिक-नहीं, देवलोकगत रूप देखे नहीं जा सकते ।
महुक-इसी तरह हे आयुष्मानो ! मैं, तुम या कोई अन्य छद्मस्थ मनुष्य जिस वस्तु को देख न सके वह वस्तु है ही नहीं, ऐसा नहीं हो सकता । दृष्टिगत न होनेवाले पदार्थों को न मानोगे तो तुम्हें बहुत से पदार्थों के अस्तित्व का निषेध करना पड़ेगा । और ऐसा करनेपर तुम्हें अधिकांशलोक के अस्तित्व का भी अस्वीकार करना पड़ेगा ।
मद्दक अपनी युक्तियों से अन्यतीर्थिकों को निरुत्तर कर भगवान् के पास पहुंचा और वन्दन नमस्कार पूर्वक पर्युपासना करने लगा ।
मढुकने अन्यतीर्थिकों के कुतर्क का जो वास्तविक उत्तर दिया था उसका अनुमोदन करते हुए भगवान् महावीर ने कहा-~मद्दुक ! तूने अन्यतीर्थिकों को बहुत ठीक उत्तर दिया है । किसी भी प्रश्न या उत्तर में बिना समझे सुने नहीं बोलना चाहिये । जो मनुष्य बिना समझे लोक समूह में हेतु-तर्क की चर्चा करता है अथवा बिना समझे किसी बात का प्रतिपादन करता है वह अर्हन्त केवली की तथा उनके धर्म की आशातना करता है ।
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