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________________ तीर्थकर-जीवन १७५ मढुक-आयुष्मानो ! अरणि-सहगत अग्नि होती है ? अन्यतीर्थिक-हाँ, अरणि-सहगत अग्नि होती है । मढुक-आयुष्मानो ! तुम उस अरणि-सहगत अग्नि के रूप को देखते हो ? अन्यतीर्थिक-नहीं, तिरोहित होने से वह देखा नहीं जाता । मढुक-आयुष्मानो ! समुद्र के उस पार कोई रूप है ? अन्यतीर्थिक-हाँ, समुद्र के उस पार कई रूप हैं । मढुक-आयुष्मानो ! समुद्र के उस पार के रूपों को तुम देखते हो ? अन्यतीर्थिक-नहीं, समुद्र के उस पार के रूप देखे नहीं जा सकते । महुक-आयुष्मानो ! देवलोकगत रूपों को तुम देख सकते हो ? अन्यतीर्थिक-नहीं, देवलोकगत रूप देखे नहीं जा सकते । महुक-इसी तरह हे आयुष्मानो ! मैं, तुम या कोई अन्य छद्मस्थ मनुष्य जिस वस्तु को देख न सके वह वस्तु है ही नहीं, ऐसा नहीं हो सकता । दृष्टिगत न होनेवाले पदार्थों को न मानोगे तो तुम्हें बहुत से पदार्थों के अस्तित्व का निषेध करना पड़ेगा । और ऐसा करनेपर तुम्हें अधिकांशलोक के अस्तित्व का भी अस्वीकार करना पड़ेगा । मद्दक अपनी युक्तियों से अन्यतीर्थिकों को निरुत्तर कर भगवान् के पास पहुंचा और वन्दन नमस्कार पूर्वक पर्युपासना करने लगा । मढुकने अन्यतीर्थिकों के कुतर्क का जो वास्तविक उत्तर दिया था उसका अनुमोदन करते हुए भगवान् महावीर ने कहा-~मद्दुक ! तूने अन्यतीर्थिकों को बहुत ठीक उत्तर दिया है । किसी भी प्रश्न या उत्तर में बिना समझे सुने नहीं बोलना चाहिये । जो मनुष्य बिना समझे लोक समूह में हेतु-तर्क की चर्चा करता है अथवा बिना समझे किसी बात का प्रतिपादन करता है वह अर्हन्त केवली की तथा उनके धर्म की आशातना करता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.008068
Book TitleShraman Bhagvana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2002
Total Pages465
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Philosophy
File Size8 MB
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