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श्रमण भगवान् महावीर हूँ । जो न शीलवान् है न श्रुतवान् उसे मैं सर्वविराधक कहता हूँ । जीव और जीवात्मा के विषय में
गौतम ने कहा-भगवन् ! अन्यतीर्थिक यह कहते हैं कि प्राणिहिंसा, मृषावाद, चौर्य, मैथुन, संग्रहेच्छा, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान, पैशुन्य, हर्ष, शोक, परनिन्दा, माया-मृषा और मिथ्यात्व आदि दुष्ट भावों में प्रवृत्ति करनेवाले प्राणी का 'जीव' जुदा है और उसका ‘जीवात्मा' जुदा ।
इसी प्रकार इन दुष्ट भावों का त्याग करके धर्म मार्ग में चलनेवाले प्राणी का भी 'जीव' अन्य है और 'जीवात्मा' अन्य । जो औत्पत्तिकी, पारिणामिकी आदि बुद्धियोंवाला है उसका जीव जुदा है और जीवात्मा जुदा । पदार्थ-ज्ञान, तर्क, निश्चय और अवधारण करनेवाले का जीव अन्य है और जीवात्मा अन्य । जो उत्थान और पराक्रम करनेवाला है उसका भी जीव अन्य है और जीवात्मा अन्य । यही नहीं नारक, देव और तिर्यग्जातीय पशु-पक्षी आदि देहधारियों का भी जीव अन्य है और जीवात्मा अन्य । ज्ञानावरणीयादि कर्मवान्, कृष्णलेश्यादि लेश्यवान्, सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि, दर्शनवान् और ज्ञानवान् इन सबका जीव अन्य है और जीवात्मा अन्य ।
भगवन् ! अन्यतीर्थिकों की इस मान्यता के विषय में क्या समझना चाहिये ?
महावीर-गौतम ! अन्यतीर्थिकों की यह मान्यता मिथ्या है । इस विषय में मेरा मत यह है कि पूर्वोक्त हिंसा, मृषावादादि में प्रवृत्ति और निवृत्ति करनेवाले प्राणी का 'जीव' और 'जीवात्मा' एक ही पदार्थ है । जो 'जीव' है वही 'जीवात्मा'२ है । केवली की भाषा के संबंध में
गौतम ने पूछा-भगवन् ! अन्यतीर्थिक लोग कहते हैं कि यक्षावेश से
१. भ० श० ८, उ० १०, पृ० ४१७ । २. भ० श० १७, उ० २, प० ७२३-७२४ ।
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