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तीर्थंकर-जीवन
१७१ ३३. तेतीसवाँ वर्ष (वि० पू० ४८०-४७९)
शीत काल में भगवान् ने मगध भूमि की ओर विहार किया और अनेक स्थानों में धर्मदेशना करते हुए राजगृह के गुणशील वन में पधारे ।
अन्यतीर्थिकों की मान्यता के संबन्ध में गौतम के प्रश्न
उन दिनों गुणशील उद्यान में अनेक अन्यतीर्थिक रहते थे और अपने अपने मत का प्रतिपादन करते हुए दूसरे के मतों का खण्डन करते थे । अन्यतीर्थिकों की मान्यता के विषय में भगवान् का अभिप्राय जानने के लिये गौतम ने जो प्रश्न किये और महावीर ने उनके जो उत्तर दिये, वे नीचे दिये जाते हैं।
श्रुत और शील के विषय में
गौतम ने पूछा-भगवन् ! कुछ अन्यतीर्थिक कहते हैं शील (सदाचार) श्रेष्ठ है, दूसरे कहते हैं श्रुत (ज्ञान) श्रेष्ठ है, तीसरे कहते हैं शील और श्रुत प्रत्येक श्रेष्ठ है । भगवन् ! यह कैसे ?
महावीर-गौतम ! अन्यतीर्थिकों का यह कथन ठीक नहीं है । इस विषय में मेरा कथन इस प्रकार है
पुरुष चार प्रकार के होते हैं कुछ शील-संपन्न ही होते हैं, श्रुतसंपन्न नहीं होते । कुछ श्रुत-संपन्न होते हैं, शील-संपन्न नहीं । कुछ शीलसंपन्न भी होते हैं और श्रुत-संपन्न भी । कुछ शील-संपन्न नहीं होते और श्रुतसंपन्न भी नहीं होते ।
इनमें जो शीलवान् है पर श्रुतवान् नहीं अर्थात् पापप्रवृत्ति से दूर रहनेवाला है पर धर्म का ज्ञाता नहीं, उसको मैं देशाराधक (धर्म के अंश का आराधक) कहता हूँ । जो शीलवान् नहीं पर श्रुतवान् है अर्थात् पापप्रवृत्ति से दूर नहीं हुआ पर श्रुत ज्ञानी है, उसको मैं देश-विराधक (अंश से धर्म का बाधक) कहता हूँ और जो शीलवान् और श्रुतवान् (पाप मार्ग से निवृत्त और धर्म का ज्ञाता है) उसे मैं सर्वाराधक (संपूर्ण धर्म का साधक) कहता
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