________________
१७०
श्रमण भगवान् महावीर महावीर-गांगेय ! यह सब मैं स्वयं जानता हूँ। किसी भी अनुमान अथवा आगम के आधार पर मैं नहीं कहता, आत्मप्रत्यक्ष से जानी हुई बात ही कहता हूँ।
गांगेय-भगवन् ! यह कैसे ? अनुमान और आगम के आधार के बिना यह विषय कैसे जाना जा सकता है ?
___ महावीर-गांगेय ! केवली पूर्व से जानता है और पश्चिम से भी जानता है । वह दक्षिण से जानता है और उत्तर से भी जानता है । केवली परिमित जानता है और अपरिमित भी जानता है । केवली का ज्ञान प्रत्यक्ष होने से उसमें सर्ववस्तुतत्त्व प्रतिभासित होते हैं ।
गांगेय-भगवन् ! नरक में नारक, तिर्यग्गति में तिर्यञ्च, मनुष्यगति में मनुष्य और देवगति में देव स्वयं उत्पन्न होते हैं या किसी की प्रेरणा से ? और वे अपनी गतियों में से स्वयं निकलते हैं या उन्हें कोई निकलता है ?
__महावीर-आर्य गांगेय ! सब जीव अपने अपने शुभाशुभ कर्मों के अनुसार शुभाशुभ गतियों में उत्पन्न होते हैं और वहाँ से निकलते हैं । इसमें दूसरा कोई भी प्रेरक नहीं है ।
उपर्युक्त प्रश्नोत्तरों के उपरान्त अनगार गांगेय ने भगवान महावीर को यथार्थरूप से पहचाना । अब उन्हें विश्वास हो गया कि वास्तव में भगवान् सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हैं ।।
इसके बाद गांगेय ने महावीर को त्रिप्रदक्षिणापूर्वक वन्दन-नमस्कार किया और पार्श्वनाथ की चातुर्यामिक धर्मपरम्परा से निकल कर वे महावीर की पाञ्चमहाव्रतिक परम्परा में प्रविष्ट हुए ।
अनगार गांगेय ने दीर्घकाल पर्यन्त श्रमण-धर्म का आराधन कर अन्त में निर्वाण प्राप्त किया ।
इसके अनन्तर भगवान् महावीर वैशाली पधारे और वर्षा चातुर्मास्य वही व्यतीत किया ।
१. भ० श० ९, उ० ३२, पृ० ४३९-४५५ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org