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तीर्थंकर-जीवन
१६५ वन्दन करके बोला-भगवन् ! आपका कथन यथार्थ है । मैं आपके निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा करता हूँ। मैं अन्य राजा-महाराजाओं और सेठ साहुकारों की तरह आपके पास निर्ग्रन्थ श्रमणमार्ग की प्रव्रज्या ग्रहण करने में तो समर्थ नहीं हूँ, परन्तु मैं आपके पास श्रावकधर्म को स्वीकार कर सकता हूँ। भगवान् की आज्ञा प्राप्त कर सोमिल ने श्रावकधर्म के द्वादश व्रत ग्रहण किए और भगवान् को वन्दन कर अपने घर गया ।
श्रमणोपासक होने के बाद सोमिल ने निर्ग्रन्थ प्रवचन का विशेष तत्त्वज्ञान प्राप्त किया और अन्त में समाधिपूर्वक आयुष्य पूर्ण कर स्वर्गवासी हुआ ।
भगवान् महावीर ने तीसवाँ वर्षा चातुर्मास्य वाणिज्यग्राम में व्यतीत किया । ३१. इकतीसवाँ वर्ष (वि० पू० ४८२-४८१)
वर्षा चातुर्मास्यं समाप्त होते ही भगवान् महावीर कोशलराष्ट्र के साकेत, श्रावस्ती आदि नगरों में ठहरते हुए पाञ्चाल की ओर पधारे और काम्पिल्य के बाहर सहस्राम्रवन में वास किया ।
श्रमणोपासक अम्मड परिव्राजक
काम्पिल्यपुर में 'अम्मड' नामक ब्राह्मण परिव्राजक, जो कि सात सौ परिव्राजक शिष्यों के गुरु थे, रहते थे । अम्मड और इनके शिष्य भगवान् महावीर के उपदेश से जैन धर्म के उपासक बने थे । परिव्राजक का बाह्य वेष और आचार रखते हुए भी वे जैन श्रावकों के पालने योग्य व्रत-नियम पालते थे ।
काम्पिल्यपुर में इन्द्रभूति और गौतम ने अम्मड के विषय में जो बातें सुनी, उनसे इन्द्रभूति गौतम का दिल सशंक हो गया । उन्होंने भगवान् से पूछा-भगवन् ! बहुत से लोग यह कहते और प्रतिपादन करते हैं कि अम्मड
१. भ० स० श० १८, उ० १०, प० ७५८-७६० ।
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