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तीर्थंकर-जीवन
१५९ है। इस प्रकार श्रमणोपासक के स्थूल प्राणातिपात-विरमण व्रत के कुल १४७ भेद होते हैं ।
इसी प्रकार स्थूल मृषावाद-विरमण, स्थूल अदत्तादान-विरमण, स्थूल मैथुन-विरमण और स्थूल परिग्रह-विरमण के भी प्रत्येक के १४७-१४७ भेद होते हैं जिनमें से अमुक व्रत का अमुक भेद पालन करनेवाला भी श्रमणोपासक होता है। इस प्रकार विविध भंग से व्रत पालनेवाले श्रमणोपासक होते हैं, आजीवकोपासक नहीं होते ।।
आजीवक मत के शास्त्रों का अर्थ ही यह है कि सचित्त पदार्थों का भोजन करना-सर्व प्राणियों का छेदन-भेदन और विनाश कर उनका भोजन करना ।
आजीवक मत में ये बारह प्रसिद्ध आजीवकोपासक कहे गये हैंताल, तालपलंब, उव्विह, संविह, अवविह, उदय, नामुदय, नमोदय, अणुवालय, संखवालय, अयंपुल और कायरय । ये सभी आजीवकोपासक अरिहंत को देव माननेवाले और माता-पिता की सेवा करनेवाले थे । ये गूलर, बड़, बेर, सतर (शहतूत) और पीपल इन पाँच जाति के फलों और प्याज, लहसुन आदि कन्दमूल को नहीं खाते थे । ये त्रसजीवों की रक्षा करते हुए ऐसे बैलों से अपनी जीविका चलाते जो न बधिया होते और न नाक बींधे
जब आजीवकोपासक भी इस प्रकार निर्दोषरीत्या जीविका चलाते थे तो श्रमणोपासकों का तो कहना ही क्या ? उन्हें तो पंन्द्रह ही कर्मादानों का त्याग करना चाहिये ।
इस वर्ष राजगृह के विपुल पर्वत पर अनेक अनगारों ने अनशन किया । ३०. तीसवाँ वर्ष (वि० पू० ४८३-४८२)
वर्षा चातुर्मास्य भगवान् ने राजगृह में किया । चातुर्मास्य की समाप्ति
१. भगवती श० ८, उ० ५, पृ० ३६९ ।
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