________________
१५६
श्रमण भगवान् महावीर इस प्रकार संकल्प-विकल्प करते हुए वे शंकाशील होते गये । परिणामस्वरूप उनको जो कुछ आत्मिक साक्षात्कार हुआ था वह तिरोहित हो गया । तब उन्होंने सोचा कि अवश्य ही इस विषय में महावीर का कथन सत्य होगा । वे ज्ञानी तीर्थंकर हैं । उन्हें अनेक योग विभूतियाँ प्राप्त हो चुकी हैं । ऐसे अर्हन्तों का दर्शन तो क्या नाम-श्रवण भी दुर्लभ होता है । अच्छा, तो अब मैं भी इन महापुरुष के पास जाऊँ और उपदेश सुनूँ ।
शिवराजर्षि वहाँ से तापसाश्रम में गये और लोही, लोहकडाह तथा किठिन-सांकायिका को लेकर हस्तिनापुर के मध्य में से होते हुए सहस्राम्रवन में पहुँचे और महावीर के पास जा कर त्रिप्रदक्षिणापूर्वक उनको वन्दन कर के योग्य स्थान पर बैठ गये ।
श्रमण भगवान् ने शिवराजर्षि तथा उस महती सभा के समक्ष निर्ग्रन्थ प्रवचन का उपदेश दिया जिसे सुन कर शिवर्षि परम संतुष्ट हुए । वे उठे
और हाथ जोड़कर भगवान् से प्रार्थना करते हुए बोले-'भगवन् ! निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा करता हूँ। भगवन् ! मुझे भी हस्तालम्बन दीजिये । निर्ग्रन्थ मार्ग की दीक्षा देकर आप मुझे भी मोक्षमार्ग का पथिक बनाइये ।'
भगवान् ने शिवराजर्षि की प्रार्थना को स्वीकार किया । राजर्षि लोही, लोहकडाह और किठिन-सांकायिका के लेकर ईशान दिशा की तरफ चले । थोड़ी दूर जाकर अपने उपकरणों को छोड़ दिया और पंचमुष्टिक लोच कर महावीर के पास लौटे । भगवान् ने उन्हें पंच महाव्रत दिए और श्रमण-धर्म की विशेष शिक्षा-दीक्षा के लिये उन्होंने स्थविरों के सुपुर्द कर दिया ।
निर्ग्रन्थ मार्ग में प्रवेश करने के बाद भी शिवर्षि ने अनेकविध कठिन तप किये और एकादशाङ्ग निर्ग्रन्थ प्रवचन का अध्ययन किया ।
अन्त में शिवराजर्षि सर्व कर्मों का नाश कर निर्वाण को प्राप्त हुए ।
भगवान महावीर के इस समवसरण में अन्य कई धर्मार्थियों ने निर्ग्रन्थ प्रवचन की दीक्षा ली जिनमें अनगार पुट्ठिल का नाम विशेष उल्लेखनीय है ।
१. भगवती श० ११, उ० ९, पृ० ५१४-५१९ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org