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श्रमण भगवान् महावीर अर्पण करके कलश भर कर कुटिया को लौटे। दर्भ-कुश और बालुका की रचना की । अरणि के शर से रगड़ कर आग उत्पन्न की और समिध् काष्ठों से उसे जलाया । अग्नि कुंड की दाहिनी तरफ सकथा, वल्कल, स्थान, शय्या - भाण्ड, कमण्डलु, काष्ठदण्ड और आत्मा को एकत्र कर शहद, घृत और तंदुलों से अग्नि में आहुतियाँ दे चरु तैयार किया । उसमें वैश्वदैव - बलि करने के उपरान्त अतिथिपूजन किया और फिर स्वयं भोजन किया ।
इसके बाद शिवराजर्षि दूसरा षष्ठ क्षपण कर तपोभूमि में गये और पूर्ववत् ध्यान किया । पारणा के दिन वे अपने झोंपड़े में आए और दक्षिण दिशा का प्रोक्षण कर बोले- 'दक्षिण दिशा में यम महाराजा प्रस्थान- प्रस्थित शिवराजर्षि का अभिरक्षण करो ।' फिर वही क्रिया की जो पहले पारणा के दिन की थी ।
इसी तरह तीसरा छट्ट कर पारणा के दिन पश्चिम दिशा का प्रोक्षण कर शिव ने कहा— 'पश्चिम दिशा में वरुण महाराजा प्रस्थान- प्रस्थित शिवराजर्षि का अभिरक्षण करो ।' शेष सब विधान पूर्ववत् किया ।
चौथे छ्ट्ट के अन्त में उत्तर दिशा का प्रोक्षण कर शिव बोले- 'उत्तर दिशा में वैश्रमण महाराजा प्रस्थान- प्रस्थित शिवराजर्षि का अभिरक्षण करो ।' शेष सभी क्रियाएँ पूर्ववत् कीं ।
शिवराजर्षि ने लम्बे समय तक तप किया- आतापना की, जिसके फलस्वरूप उन्हें विभंग - ज्ञान हुआ और सात समुद्रों तक स्थूल सूक्ष्म रूपी पदार्थों को जानने - देखने लगे ।
इस ज्ञानदृष्टि से शिवराजर्षि के मन में यह संकल्प उत्पन्न हुआ कि मुझे विशिष्ट ज्ञान - दर्शन उत्पन्न हुए हैं । इन ज्ञान - दर्शन से मैं जानता और देखता हूँ कि इस लोक में सात द्वीप और सात ही समुद्र हैं । इन के उपरान्त न द्वीप हैं, न समुद्र ।
ज्ञान उत्पन्न होने के उपरान्त शिव तपोभूमि से अपने झोंपड़े में गये और वल्कल पहन लोही, लोहकडुच्छुय, दण्ड, कमण्डल, ताम्रभाजन और किठिन - सांकायिका लिये हस्तिनापुर के तापसाश्रम में गये और भाजनादि
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