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________________ तीर्थकर-जीवन १५३ यह सब मेरे पूर्वभव के शुभ कर्मों का फल है । धर्म का यह फल भोगते हए मुझे भविष्य के लिये भी कुछ करना चाहिए । अच्छा, तो अब मैं कल ही लोहमय कड़ाह, कडुच्छुय और ताम्रीय भाजन बनवाऊँगा और कुमार शिवभद्र को राज्याभिषिक्त कर लोही, लोहकड़ाह, कडुच्छुय और ताम्र-भाजन लेकर गंगातटवासी दिशाप्रोक्षक वानप्रस्थ तापसों के समीप जाकर परिव्रज्या स्वीकार कर लूँगा । उसी समय नियम धारण करूँगा कि 'आज से जीवन पर्यन्त मैं दिशा-चक्रवाल तप करूँगा ।' प्रात:काल होते ही शिव ने अपने सेवकों को बुलाया और सब तैयारियाँ करवाईं । युवराज शिवभद्र का राज्याभिषेक करके उसने एक बड़ी जातीय सभा बुलाई जिसमें ज्ञातिजनों के उपरान्त मित्र और स्नेही संबन्धियों को भी आमंत्रित किया । आगन्तुक मेहमानों का भोजनादि से योग्य सत्कार करने के उपरान्त शिव ने उनके सामने अपना अभिप्राय प्रकट किया और शिवभद्र तथा उन सबकी सम्मति प्राप्त कर लोही, लोहकड़ाह, कडुच्छ्य, ताम्रभाजनादि लेकर शिव दिशा-प्रोक्षक तापसों के निकट पहुंचे और उनके मत की परिव्रज्या ले दिशा-प्रोक्षक तापस हो गए । शिवराजर्षि अपने निश्चयानुसार प्रतिज्ञा कर छ8-छ8 से दिशाचक्रवाल तप करने लगे । पहला छट्ठ पूरा होने पर वल्कल पहने हुए शिवराजर्षि तपोभूमि से अपनी कुटिया में आये और किठिन-सांकायिका को लेकर पूर्व दिशा का प्रोक्षण करते हुए बोले-'पूर्व दिशा में सोम महाराजा प्रस्थान-प्रस्थित शिवराजर्षि का अभिरक्षण करो और वहाँ के कंद, मूल, त्वचा, पत्र, पुष्प, फल, बीज, हरियाली और तृणों के ग्रहण करने की आज्ञा प्रदान करो ।' उक्त प्रार्थना कर वे पूर्व दिशा में चले और वहाँ से कंद, मूल, त्वचा, पत्र, पुष्प, फलादि से किठिन-सांकायिका को भर कर तथा दर्भ, कुश, समिध्, पत्रामोट आदि लेकर अपने झोंपड़े में लौटे । किठिन- सांकायिका को एक तरफ रख कर वेदिका को झाड़ा तथा लीपा । फिर दर्भगर्भित कलश लिए गंगा में गये । वहाँ स्नान -मज्जन किया और दैवत-पितरों को जलादि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.008068
Book TitleShraman Bhagvana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2002
Total Pages465
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Philosophy
File Size8 MB
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