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श्रमण भगवान् महावीर अश्रद्धा नहीं उत्पन्न होती ?
गौतम-पूज्य कुमारश्रमण ! सर्वत्र धर्म-तत्त्व का निर्णय बुद्धि से होता है । इसलिए जिस समय में जैसी बुद्धिवाले मनुष्य हों उस समय में उसी प्रकार की बुद्धि के अनुकूल धर्म का उपदेश करना योग्य है ।
__ प्रथम तीर्थंकर के समय में मनुष्य सरल परन्तु जड़ बुद्धिवाले थे। उनके लिये आचार मार्ग का शुद्ध रखना कठिन था । अन्तिम तीर्थंकर के समय में प्रायः कुटिल और जड़ बुद्धिवाले जीवों की अधिकता रहती है। उनके लिये आचार-पालन कठिन है। इस कारण प्रथम और अन्तिम तीर्थंकरों ने पाञ्चमहाव्रतिक धर्म का उपदेश किया, परन्तु मध्यवर्ती बाईस तीर्थंकरों के समय में जीव सरल और चतुर होते थे । वे थोड़े में बहुत समझ लेते और आचार को शुद्ध पाल सकते थे । इसी कारण बाईस तीर्थंकरों ने चातुर्याम धर्म का उपदेश किया ।
केशी-गौतम ! तुम्हारी बुद्धि को धन्यवाद ! मेरा यह संशय दूर हो गया । अब मेरी दूसरी शंकाओं को सुनो
भगवान् वर्धमान ने अचेलक धर्म कहा और महायशस्वी पार्श्वनाथ ने सवस्त्र धर्म का उपदेश दिया । एक ही कार्य में प्रवृत्त दो पुरुषों के उपदेश में यह भेद कैसा ? क्यों गौतम ! इस प्रकार साधु वेष में भिन्नता देख कर तुम्हारे हृदय में संशय उत्पन्न नहीं होता ?
__ गौतम-पूज्य कुमारश्रमण ! धर्म की साधना ज्ञान के साथ संबन्ध रखती है, बाह्य वेष के साथ नहीं । बाह्य वेष पहचान और संयमनिर्वाह का कारणमात्र है । मोक्ष-प्राप्ति ज्ञान, दर्शन और चारित्र के स्वीकार से ही होती है।
केशी-गौतम ! तुम हजारों शत्रुओं के बीच में रहते हो और शत्रु तुम पर हमला भी करते हैं फिर भी तुम उन्हें कैसे जीत लेते हो ?
गौतम-कुमारश्रमण ! पहले मैं अपने एक शत्रु को जीतता हूँ और तब पाँच शत्रुओं को सहज जीत लेता हूँ। पाँच को जीत कर दस को और
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