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तीर्थंकर-जीवन
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इन्द्रभूति गौतम के उक्त प्रश्नों का जमालि ने कुछ भी उत्तर नहीं दिया । इस पर भगवान् महावीर ने कहा-जमालि ! मेरे बहुतेरे ऐसे शिष्य हैं जो छद्मस्थ होते हुए भी इन प्रश्नों के यथार्थ उत्तर देने में समर्थ हैं, तथापि वे केवली होने का दावा नहीं करते । देवानुप्रिय ! केवलज्ञान कोई ऐसी वस्तु नहीं है कि जिसका अस्तित्व बताने के लिये केवली को अपने मुख से घोषणा करनी पड़े ।
जमालि ! लोक 'शाश्वत' है, क्योंकि यह अनन्तकाल पहले भी था, अब है और भविष्य में सदाकाल रहेगा ।
अन्य अपेक्षा से लोक 'अशाश्वत' भी है । कालस्वरूप से वह उत्सर्पिणी मिटकर अवसर्पिणी बनता है और अवसर्पिणी मिटकर उत्सर्पिणी । इसी प्रकार अन्य जो लोकात्मक द्रव्य हैं उनमें अथवा उनके अवयवों में पर्याय परिवर्तन (आकार परावर्तन) होता ही रहता है । इस वास्ते लोक को 'अशाश्वत' भी कह सकते हैं ।
- इसी तरह जीव भी शाश्वत है और अशाश्वत भी । शाश्वत इसलिये कि उसका अस्तित्व त्रिकालवर्ती है और अशाश्वत इसलिये कि पर्यायरूप से वह सदाकाल एकसा नहीं रहता । कभी वह नारकरूप धारण करता है तो कभी तिर्यग् बनता है, कभी वह मनुष्य बनता है और कभी देव । इस प्रकार अनेक पर्यायों के उत्पाद और व्यय की अपेक्षा से जीव 'अशाश्वत' है ।
जमालि को पूछे गये गौतम के प्रश्नों का स्पष्टीकरण करके भगवान ने बहुत समझाया पर उसने अपना कदाग्रह नहीं छोड़ा । वह चला गया और दुराग्रहवश अनेक मिथ्या बातों से लोगों को बहकाता और अपने मतवाद में मिलाता हुआ विचरता रहा ।
जमालि के ५०० साधुओं में से कतिपय साधु और प्रियदर्शना प्रमुख १००० साध्वियाँ भी जमालि के पंथ में मिल गई थीं ।
एक समय प्रियदर्शना अपने साध्वी - परिवार के साथ विहार करती हुई श्रावस्ती पहुँची और ढंक कुम्हार की भाण्डशाला में ठहरी ।
श्रमण-१०
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