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श्रमण भगवान् महावीर
शपथबद्ध हुए हो इसका पालन करना । मेरी आत्मशान्ति के लिये इस पर
अमल करना ।
पश्चात्ताप की आग में अशुभ कर्मों को जलाकर गोशालक शुद्ध हो गया । सम्यक्त्व की प्राप्ति के साथ देह छोड़कर वह अच्युत देवलोक में देवपद को प्राप्त हआ ।
आजीवक स्थविरों के लिये गोशालक के मरण से भी उसके अन्तिम आदेश का पालन करना अधिक दुःखदायक था । इसके पालन में गोशालक के साथ उनका अपना अपमान था पर शपथबद्ध होने के कारण वे इस बात का अनादर भी नहीं कर सकते थे । खूब सोच विचार के बाद उन्होंने शपथ - - मोक्ष का उपाय खोज निकाला । तुरंत हालाहला की भाण्डशाला का द्वार बन्द किया और चौक के मध्य में श्रावस्ती की एक विस्तृत नकशे के रूप में रचना की । बाद में गोशालक के आदेशानुसार उसके शव को उस कल्पित श्रावस्ती में सर्वत्र फिराया और अतिमन्द स्वर से उस प्रकार की उद्घोषणा भी कर दी ।
इस प्रकार आजीवक स्थविरों ने अपने धर्माचार्य के आदेश के पालन का नाटक खेला फिर शव को नहलाकर चन्दन - विलेपनपूर्वक उज्ज्वल वस्त्र से ढककर पालकी में रखा और सारी श्रावस्ती में फिराकर उसका उचित संस्कार किया ।
गोशालक के देहान्त के बाद भगवान् महावीर श्रावस्ती के कोष्ठक चैत्य से विहार कर फिरते हुए मेंढिक गाँव के बाहर सालकोष्ठक चैत्य में पधारे । भगवान् का आगमन सुनकर श्रद्धालु जन वन्दन और धर्मश्रवण के लिये सम्मिलित हुए । भगवान् ने धर्मदेशना दी जिसे सुनकर सभा विसर्जित हुई ।
श्रमण भगवान् की बीमारी
मंखलि गोशालक ने श्रावस्ती के उद्यान में भगवान् पर जो तेजोलेश्या छोड़ी थी उससे यद्यपि तात्कालिक हानि नहीं हुई थी, पर उसकी प्रचण्ड
१. भगवतीसूत्र, शतक १५ वाँ पत्र ६५९ से ६९५ /
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