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________________ तीर्थंकर - जीवन १३९ बार उसके प्रति बताया हुआ दयाभाव इत्यादि बातें उसके हृदय में ताजी हो रही थीं । साथ ही अपने मुख से की गई महावीर की बुराइयाँ, क्रोधवश हो की हुई सर्वानुभूति और सुनक्षत्र मुनि की हत्या और महावीर पर तेजोलेश्या छोड़ना इत्यादि कृतघ्नतासूचक प्रवृत्तियाँ भी स्मृतिपट पर ताजी होकर उसके चित्त को आकुल कर रही थीं। पहले केवल शरीर में ही जलन थी पर अब तो उसका मन बी पश्चात्ताप की आग में जलने लगा । क्षण भर उसने नीरव और निश्चेष्ट होकर हृदयमन्थन किया, फिर अपने शिष्यों को पास बुलाकर कहा - भिक्षुओ ! मैं तुम्हें एक कार्य की सूचना करना चाहता हूँ, क्या तुम उस पर अमल करोगे ? स्थविर - अवश्य, आपकी बातों पर अमल करना हमारा सर्वप्रथम कर्तव्य है । गोशालक - तुम आज्ञाकारी हो ! मेरी आज्ञा मानने में तुमने कभी आनाकानी नहीं की, फिर भी मेरे विश्वास के लिए शपथपूर्वक कहो कि मेरा कहना सफल होगा । स्थविर- हम शपथ - बद्ध होकर कहते हैं कि आपकी आज्ञा का अक्षरशः पालन करेंगे । I 1 गोशालक — भिक्षुओ ! मैं बड़ा पापी हूँ । मैंने तुम्हें ठगा है । मैंने संसार को भी ठगा है । मैं जिन न होते हुए भी जिन और सर्वज्ञ के नाम से पूजाता रहा हूँ, यह मेरा दंभ था । मैं श्रमणघातक तथा अपने धर्माचार्य की अपकीर्ति करनेवाला हूँ । अब मैं मृत्यु के समीप हूँ और क्षणों में मर जाऊँगा । अब मेरे मरने के बाद तुम्हारा जो कर्तव्य है उसे सुनो- जब मैं मर जाऊँ तो मेरे शब के बाँएँ पाँव में मुंज की रस्सी बाँधकर मुख में तीन बार थूकना, फिर उसे खींचते हुए श्रावस्ती के सब चौक बाज़ारों में फिराना और साथ-साथ उच्च स्वर से उद्घोषित करना - 'यह मंखलि गोशालक मर गया ! जिन न होने पर भी जिन होने का ढोंग करनेवाला, श्रमणघातक, गुरुद्रोही गोशालक मर गया ।' भिक्षुओ ! यही मेरा अन्तिम आदेश है जिसके पालन के लिये तुम Jain Education International For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.008068
Book TitleShraman Bhagvana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2002
Total Pages465
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Philosophy
File Size8 MB
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