SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 194
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३७ तीर्थंकर-जीवन शीतलता प्राप्त की जाती है उसको "फली जल" कहते हैं । ४. कोई मनुष्य छ: मास तक शुद्ध खाद्य वस्तु का सेवन करे । इस बीच दो मास जमीन पर, दो मास काठ पर और दो मास कुश की पथारी पर सोवे तब छठे महीने की आखिरी रात में पूर्णभद्र और माणिभद्र नामक दो महद्धिक देव वहाँ प्रकट होते हैं और अपने जल भीगे शीतल हाथ से साधक के शरीर को छूते हैं । यदि इस स्पर्श-सुख से खुश होकर साधक अनुमोदन करता है तो उसे आशीविष लब्धि प्राप्त होती है अर्थात् उसकी दाढ़ में साँप के विष से भी अधिक उग्र विष प्रकट होता है और जो उन स्पर्शक देवों का अनुमोदन नहीं करता उसके शरीर में अग्निकाय की उत्पत्ति होती है । उस अग्नि से अपने शरीर को जलकर वह उसी भव में सब दुःखों का अन्त करके संसार से मुक्त हो जाता है । उक्त देव के जल भीगे हाथ का शीतल स्पर्श ही 'शुद्ध जल' कहलाता है ।। अयंपुल ! अपने धर्माचार्य ने उपर्युक्त आठ चरमों, चार पेय जलों और चार अपेय जलों की प्ररूपणा की है । इस वास्ते वे जो नाच, गान, पान, अञ्जलिकर्म और शरीर पर मृत्तिका-जल सींचते हैं वह सब ठीक है । ये कार्य अन्तिम तीर्थंकर के अवश्य कर्त्तव्य हैं । इनमें कुछ भी अनुचित नहीं । आर्य अयंपुल ! खुशी से अपने धर्माचार्य के पास जाइये और प्रश्न पूछकर अपनी शंका की निवृत्ति कीजिए । आजीवक भिक्षुओं ने अयंपुल के मन का समाधान कर उसे गोशालक की तरफ भेजा और उसके वहाँ पहुँचने के पहले ही दूसरे रास्ते से अन्दर जाकर गोशालक को उन्होंने सावधान रहने और अमुक प्रश्न का उत्तर देने का इशारा कर दिया । अयंपुल गोशालक के पास अंदर गया और तीन प्रदक्षिणापूर्वक वन्दन नमस्कार करके उचित स्थान पर बैठ गया । वह अभी प्रश्न पूछने ही नहीं पाया था कि गोशालक ने उसकी शंका को प्रकट करते हुए कहाअयंपुल ! आज पिछली रात को कुटुम्ब-चिन्ता करते हुए तुझे हल्ला के संस्थान के विषय में शंका उत्पन्न हुई और उसका समाधान करने के लिये तू यहाँ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.008068
Book TitleShraman Bhagvana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2002
Total Pages465
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Philosophy
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy