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श्रमण भगवान् महावीर गोशालक के तत्कालीन आचरणों का बचाव करते हुए भिक्षुओं ने उसे कहा-अयंपुल ! अपने धर्माचार्य को तुमने जिस स्थिति में देखा है उसके संबंध में उनका यह कहना है कि ये आठ बातें अन्तिम तीर्थंकर के समय में अवश्यंभावी होती हैं, जैसे—१. चरम पान, २. चरम गान, ३. चरम नृत्य, ४. चरम अञ्जलि-कर्म (नमस्कार) ५. चरम पुष्कर संवर्तक महामेघ, ६. चरम सेचनक गन्धहस्ती, ७. चरम महाशिला कंटक संग्राम और ८. चरम 'मैं तीर्थंकर' । ये आठों ही वस्तु चरम (अन्तिम) हैं, इस अवसर्पिणी काल में ये फिर होनेवाली नहीं ।
आर्य अयंपुल, जल के विषय में भगवान् का कथन यह है कि भिक्षु के काम में आने योग्य चार तो पेय जल होते हैं और चार अपेय ।
पेय जल ये हैं—१. गोपृष्ठज, २. हस्तमर्दित, ३. आतपतप्त और ४. शिलाप्रभ्रष्ट ।
१. गौ के पीठ का स्पर्श करके गिरा हुआ जल 'गोपृष्ठज ।'
२. मिट्टी आदि पदार्थों से लिप्त हाथों से बिलोड़ा हुआ जल 'हर्षमर्दित ।'
३. सूर्य और अग्नि के ताप से तपा हुआ जल 'आतपतप्त', और
४. पत्थर, शिला के ऊपर से जोर से गिरा हुआ जल 'शिलाप्रभ्रष्ट' कहलाता है ।
पिये ना जा सकें पर किसी अंश में जल का काम दें वैसे चार अपेय जल इस प्रकार कहे हैं—१. स्थाल जल, २. त्वचा जल, ३. फली जल और ४. शुद्ध जल |
१. जल से भीगी खस की टट्टी और जलाई घट वगैरह पदार्थ जिनका शीतल स्पर्श दाह की शान्ति करता है "स्थाल जल" कहलाता है ।
२. कच्चे आम, बेर वगैरह जिनको चूसकर शीतलता प्राप्त की जाती है "त्वचा जल" कहलाता है ।
३. मूंग, उड़द, वगैरह की कच्ची फली को मुख में चबाकर जो
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