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माल्यमंडित के शरीर में प्रवेश किया और बीस वर्ष उसमें रहा ।
४. वाराणसी नगरी के काम महावन में माल्यमंडित का शरीर छोड़ कर रोह के शरीर में प्रवेश किया और उन्नीस वर्ष उसमें रहा ।
श्रमण भगवान् महावीर
५. आलभिका नगरी के पत्तकालय चैत्य में रोह के शरीर से निकल कर भारद्वाज के शरीर में प्रवेश किया और अठारह वर्ष वहाँ रहा ।
६. वैशाली नगरी के कोण्डियायन चैत्य में गौतमपुत्र अर्जुन के शरीर में प्रवेश कर सत्रह वर्ष उसमें रहा ।
७. श्रावस्ती में हालाहला की भाण्डशाला में अर्जुन के शरीर से निकल स्थिर, दृढ़ तथा कष्टक्षम इस गोशालक के शरीर में प्रवेश किया है । इस शरीर में सोलह वर्ष तक रहने के उपरान्त सर्व दुःखों का अन्त करके मुक्त हो जाऊँगा ।
आर्य काश्यप ! अब तुम जान गये होगे कि मैं कौन हूँ । तुम मुझे गोशालक के नाम से पुकारते हो पर मैं वास्तव में गोशालक नहीं, गोशालक शरीरधारी उदायी कुण्डियायन हूँ ।
गोशालक का उक्त आत्मगोपक भाषण सुनने के बाद महावीर ने कहा— गोशालक ! जैसे कोई चोर एक आध ऊन के रेशे से, सन के रेशे से अथवा रुई के पहले से अपने को ढक कर मान ले कि मैं ढक गया वैसे ही तू दूसरा न होते हुए भी 'दूसरा हूँ' कह कर अपने को छिपाना चाहता है । महानुभाव, इस प्रकार अपनी आत्मा को छिपाने का व्यर्थ प्रयत्न न कर ! तू वही मंखलिपुत्र गोशालक है जो मेरा शिष्य होकर रहा था । महानुभाव ! तुझे इस प्रकार आत्मगोपन करना उचित नहीं है ।
महावीर के इन सत्य वचनों से अतिक्रुद्ध होकर तुच्छ और कठोर वचनों की बौछार करता हुआ गोशालक बोला- धृष्ट काश्यप ! अब तेरा विनाशकाल आ पहुँचा है । अब तू भ्रष्ट होने की तैयारी में है । अब समझ ले कि तू इस दूनिया में था ही नहीं । मेरी तरफ से तुझे सुख नहीं है,
काश्यप ।
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