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________________ तीर्थकर-जीवन १३३ गोशालक के ये अपमानजनक वचन महावीर के विनीत और भद्र शिष्य सर्वानुभूति अनगार से न सहे गये । वे उठ कर गोशालक के पास जाकर बोले--महानुभाव गोशालक ! यदि कोई व्यक्ति किसी पवित्र साधु महात्मा से एक भी धार्मिक वचन सुनता है तो वह उन्हें वन्दन नमस्कार करता है और तुमको तो इन भगवान् ने ही दीक्षा दी और भगवान् ने ही योग्य शिक्षा तथा श्रुतज्ञान दिया है फिर इनके ऊपर तुम ऐसा म्लेच्छभाव रखते हो ! महानुभाव ! ऐसा न करो, ऐसा करना तुम्हें उचित नहीं है । सर्वानुभूति की इस हितशिक्षा ने गोशालक की क्रोधाग्रि में घृताहुति का काम किया । शान्त होने के बदले उसका क्रोध और भी बढ़ गया । उसने अपनी तेजोलेश्या को एकत्र करके सर्वानुभूति अनगार पर छोड़ दिया । तेजोलेश्या की प्रचण्ड ज्वालाओं से मुनि का शरीर जल कर भस्म हो गया और उनकी आत्मा सहस्रार देवलोक में देवपद को प्राप्त हुई । गोशालक फिर महावीर को धिक्कारने लगा । यह देख कौशलिक सुनक्षत्र अनगार की सहिष्णुता टूट गई । अपने परमगुरु के अपमान से उत्तेजित होकर वे उठे और सर्वानुभूति की ही तरह गोशालक को हितवचन कहने लगे । गोशालक ने इनके ऊपर भी तेजोलेश्या छोड़ी और सुनक्षत्र उससे घायल होकर गिर पड़े। वे अपने धर्माचार्य श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन कर अपने सतीर्थ्य साधु साध्वियों के साथ क्षमापन करते हुए प्राणमुक्त होकर अच्युत देवलोक में देवपद को प्राप्त हुए । निरपराध दो मनियों के बलिदान से भी गोशालक की क्रोधज्वाला शान्त नहीं हुई। वह क्रोधावेश में अनर्गल बक रहा था । यह देखकर भगवान् महावीर ने कहा---गोशालक ! एक अक्षर देनेवाला भी विद्यागुरु कहलाता है, एक भी आर्यधर्म का वचन सुनानेवाला धर्मगुरु माना जाता है । मैंने तो तुझे दीक्षित और शिक्षित किया है, मैंने ही तुझे पढ़ाया और मेरे ही साथ तेरा यह बरताव ! गोशालक, तू अनुचित कर रहा है । महानुभाव ! तुझे ऐसा करना उचित नहीं । महावीर के हितवचनों का भी विपरीत परिणाम हुआ । शान्त होने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.008068
Book TitleShraman Bhagvana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2002
Total Pages465
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Philosophy
File Size8 MB
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