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तीर्थंकर-जीवन
१३१ ___ बाद में वह ऊपर के मानसोत्तर देव संयूथ में मानसोत्तर अर्थात् महामानस प्रमाण आयुष्यवाला देव होकर फिर चौथा भव प्राप्त करता है ।
वहाँ से मध्य मानसोत्तर संयूथ में देव होता है और फिर पाँचवाँ मनुष्य जन्म पाता है।
फिर वह उससे नीचे मानसोत्तर संयूथ में देवपद प्राप्त करता है और वहाँ के दिव्य सुख भोगकर छठीबार मनुष्य जन्म धारण करता है ।
छठा मनुष्यभव पूरा करके वह दस सागरोपम प्रमाण आयुष्य स्थितिवाले ब्रह्मदेवलोक में सुकुमारदेव होता है और वहाँ दस सागर समय पर्यन्त दिव्य सुखों का उपभोग करके वह सातवाँ मनुष्य भव ग्रहण करता है।
सातवें मनुष्य भव में वह बाल्यावस्था में ही प्रव्रज्या ग्रहण कर लेता है और धर्माराधन कर अन्त में एक के बाद दूसरा ऐसे सात शरीरान्तर-प्रवेश करता है और उन शरीरों में क्रमश: बाईस, इक्कीस, बीस, उन्नीस, अठारह, सत्रह और सोलह वर्ष तक रहता है ।।
इस प्रकार सात शरीरान्तर-प्रवेश करके एक सौ तेंतीस वर्ष तक उनमें रहने के बाद वह पवित्र आत्मा सर्व कर्मों का नाश करके दुःखों से मुक्त हो जाता है।
काश्यप ! उपर्युक्त सिद्धान्त के अनुसार मैंने सात दिव्य सांयूथिक और सात मनुष्य भव कर लिये हैं और सातवें मनुष्य भव में सात शरीरान्तरप्रवेश भी कर चुका हूँ, जिनका विवरण इस प्रकार है
१. सातवें मनुष्य भव में मैं उदायी कुंडियायन था । राजगृह नगर के बाहर मंडितकुक्षि-चैत्य में उदायी कुंडियायन का शरीर छोड़ कर मैंने ऐणेयक के शरीर में प्रवेश किया और बाईस वर्ष तक उसमें रहा ।
२. उदंडपुर नगर के चन्द्रावतरण चैत्य में ऐणेयक का शरीर छोड़ा और मल्लराम के शरीर में प्रवेश कर इक्कीस वर्ष उसमें रहा ।
३. चम्पानगरी के अंगमंदिर चैत्य में मल्लराम का शरीर छोड़ कर
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