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________________ तीर्थकर-जीवन १२९ तपोलब्धि का उपयोग नहीं करते । आनन्द ! इस बात की सूचना गौतमादि स्थविरों को कर दे और उन्हें कह दे कि गोशालक इधर आ रहा है । इस समय वह द्वेष और म्लेच्छभाव से परिपूर्ण है । इसलिये आकर वह कुछ भी कहे, कुछ भी करे पर तुम्हें उसका प्रतिवाद नहीं करना चाहिये, यहाँ तक कि तुममें से कोई भी उसके साथ धार्मिक चर्चा तक न करे । ___अनगार आनन्द ने भगवान् का संदेश गौतम प्रमुख मुनिमण्डल को सुना दिया और सब अनगार अपने अपने कार्यों में प्रवृत्त हो गये ।। अनगार आनन्द को आये अभी अधिक समय नहीं हुआ था कि गोशालक भी अपने आजीवक भिक्षुसंघ के साथ महावीर के पास पहुँचा और उनसे थोड़ी दूरी पर ठहर गया । क्षण भर मौन रखने के बाद गोशालक महावीर को लक्ष्य कर बोला-तुमने खूब कहा काश्यप ! मैं गोशालक मंखलिपुत्र हूँ ? मैं तुम्हारा धर्मशिष्य हूँ ? कितना अन्धेर है ? आयुष्मन् ! तुम्हें पता भी है कि तुम्हारा शिष्य वह मंखलिपुत्र गोशालक कभी का परलोक सिधार चुका है ! आर्य काश्यप ! मैं तुम्हारा शिष्य मंखलि गौशालक नहीं पर एक भिन्न ही आत्मा हूँ। यद्यपि मैंने परीषहक्षम गोशालक का शरीर धारण किया है फिर भी मैं गोशालक नहीं, किन्तु गोशालक-शरीरप्रविष्ट उदायी कुण्डियायन नामक धर्मप्रवर्तक हूँ। यह मेरा सातवाँ शरीरान्तर-प्रवेश है। इस प्रकार मैंने अन्यान्य शरीरों में प्रवेश क्यों किया ? यह प्रश्न हो सकता है और इसका कारण अपने धर्मसिद्धान्त के अनुसार समझाऊँगा । ____ आर्य ! हमारे धर्म में जो मोक्ष गये हैं, जाते हैं और भविष्य में जायेंगे वे सब चौरासी लाख महाकल्पों के उपरान्त सात दिव्य सांयूथिक और सात संनिगर्भक भव करने के बाद सात शरीरान्तर--प्रवेश करके पैंसठ लाख साठ हजार छ: सौ तीन (६५६०६०३) कर्मांशों का क्षय करके गये हैं, जाते हैं और जायेंगे । आयुष्मन् ! हमारे महाकल्प और मानस आदि क्या हैं, सो सुनिये । श्रमण -९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.008068
Book TitleShraman Bhagvana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2002
Total Pages465
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Philosophy
File Size8 MB
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