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________________ १२८ श्रमण भगवान् महावीर को छोडोगे भी ? यह आखिरी वल्मीक है, न मालूम हीरों के स्थान कहीं विषधर साँप ही निकल पड़े ! जो मिला है वही बहुत है । अब अति लोभ करना अच्छा नहीं । पर लोभी वणिक उसकी कब सुननेवाले थे ! उन्होंने चौथा वल्मीक भी तोड़ ही दिया और उसमें से जो दृष्टिविष सर्प निकला उसके दृष्टिपात मात्र से वे सब जल कर खाक हो गये । केवल वह संतोषी सुबुद्धि वणिक, जो उनका हित-शिक्षक था, उस उत्पात से बचने पाया । आनन्द ! उक्त उपमा तेरे धर्माचार्य को बराबर लागू होती है । तेरे धर्माचार्य श्रमण ज्ञातपुत्र को आज संपूर्ण लाभ मिल चुके हैं, फिर भी उन्हें संतोष नहीं । मानों संसार में वे आप ही अद्वितीय जिन हैं, दूसरा कोई भी उनके मुकाबले में हो ही नहीं सकता । जहाँ तहाँ वे मेरे संबंध में कहते फिरते हैं—'यह गोशालक है, मंखलिपुत्र है, मेरा शिष्य है, छद्मस्थ है ।' ठीक है, आनन्द ! अब तू जा और अपने गुरु को सावधान कर दे । मैं आता हूँ और विपरीत भाषी तेरे धर्माचार्य की उन दुर्बुद्धि वणिकों की सी दशा हूँ । गोशालक का क्रोधपूर्ण भाषण सुनकर अनगार आनन्द भयभीत हो गया । वह जल्दी जल्दी महावीर के पास गया और गोशालक की सब बातें कहकर बोला- भगवन् ! गोशालक अपने तपस्तेज से किसी को जलाकर भस्म करने में क्या समर्थ हैं ? किसी को एकदम जलाकर खाक कर देना क्या गोशालक की शक्ति का विषय है ? भगवान् ने कहा-- - हाँ, आनन्द ! अपने तपस्तेज से एकदम जलाकर भस्म कर देने में गोशालक समर्थ है । वैसा करना गोशालक की शक्ति का विषय है । फिर भी यह तेजः शक्ति तीर्थंकर को जला नहीं सकती । आनन्द ! जितना तपोबल गोशालक में है उससे अनन्तगुना तपोबल निर्ग्रन्थ अनगारों में है पर अनगार क्षमाशील होते हैं, वे अपनी तपः शक्ति का उपयोग नहीं करते । जो तप:सामर्थ्य अनगारों में है उससे अनन्तगुना सामर्थ्य भगवान् स्थविरों में है पर स्थविर क्षमावान् होते हैं, वे अपने सामर्थ्य का प्रयोग नहीं करते । और जितनी तपोलब्धि स्थविरों में है उससे अनन्तगुनी अधिक तपोलब्धि भगवान् अर्हन्तों में होती है पर भगवान् अर्हन्त क्षमावान् होते हैं, वे अपनी Jain Education International For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.008068
Book TitleShraman Bhagvana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2002
Total Pages465
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Philosophy
File Size8 MB
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