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श्रमण भगवान् महावीर को छोडोगे भी ? यह आखिरी वल्मीक है, न मालूम हीरों के स्थान कहीं विषधर साँप ही निकल पड़े ! जो मिला है वही बहुत है । अब अति लोभ करना अच्छा नहीं । पर लोभी वणिक उसकी कब सुननेवाले थे ! उन्होंने चौथा वल्मीक भी तोड़ ही दिया और उसमें से जो दृष्टिविष सर्प निकला उसके दृष्टिपात मात्र से वे सब जल कर खाक हो गये । केवल वह संतोषी सुबुद्धि वणिक, जो उनका हित-शिक्षक था, उस उत्पात से बचने पाया ।
आनन्द ! उक्त उपमा तेरे धर्माचार्य को बराबर लागू होती है । तेरे धर्माचार्य श्रमण ज्ञातपुत्र को आज संपूर्ण लाभ मिल चुके हैं, फिर भी उन्हें संतोष नहीं । मानों संसार में वे आप ही अद्वितीय जिन हैं, दूसरा कोई भी उनके मुकाबले में हो ही नहीं सकता । जहाँ तहाँ वे मेरे संबंध में कहते फिरते हैं—'यह गोशालक है, मंखलिपुत्र है, मेरा शिष्य है, छद्मस्थ है ।' ठीक है, आनन्द ! अब तू जा और अपने गुरु को सावधान कर दे । मैं आता हूँ और विपरीत भाषी तेरे धर्माचार्य की उन दुर्बुद्धि वणिकों की सी दशा हूँ ।
गोशालक का क्रोधपूर्ण भाषण सुनकर अनगार आनन्द भयभीत हो गया । वह जल्दी जल्दी महावीर के पास गया और गोशालक की सब बातें कहकर बोला- भगवन् ! गोशालक अपने तपस्तेज से किसी को जलाकर भस्म करने में क्या समर्थ हैं ? किसी को एकदम जलाकर खाक कर देना क्या गोशालक की शक्ति का विषय है ?
भगवान् ने कहा-- - हाँ, आनन्द ! अपने तपस्तेज से एकदम जलाकर भस्म कर देने में गोशालक समर्थ है । वैसा करना गोशालक की शक्ति का विषय है । फिर भी यह तेजः शक्ति तीर्थंकर को जला नहीं सकती । आनन्द ! जितना तपोबल गोशालक में है उससे अनन्तगुना तपोबल निर्ग्रन्थ अनगारों में है पर अनगार क्षमाशील होते हैं, वे अपनी तपः शक्ति का उपयोग नहीं करते । जो तप:सामर्थ्य अनगारों में है उससे अनन्तगुना सामर्थ्य भगवान् स्थविरों में है पर स्थविर क्षमावान् होते हैं, वे अपने सामर्थ्य का प्रयोग नहीं करते । और जितनी तपोलब्धि स्थविरों में है उससे अनन्तगुनी अधिक तपोलब्धि भगवान् अर्हन्तों में होती है पर भगवान् अर्हन्त क्षमावान् होते हैं, वे अपनी
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