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तीर्थंकर - जीवन
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गौतम और महावीर के प्रश्नोत्तरों की चर्चा हो रही थी— 'महावीर के कथनानुसार गोशालक मंखलिपुत्र है । वह तीर्थंकर जिन नहीं, छद्मस्थ मनुष्य है ।' ये शब्द वहाँ खड़े गोशालक के कानों तक पहुँचे । वह कुपित होकर वहाँ से जल्दी-जल्दी श्रावस्ती की तरफ चला और अपने निवास स्थान हालाहला की भाण्डशाला में जाकर अपने शिष्य समुदाय के साथ मंत्रणा करने बैठा ।
उस समय महावीर के शिष्य आनन्द नामक अनंगार भिक्षाचर्या के लिए घूमते हुए गोशालक के निवास स्थान के आगे होकर जा रहे थे । गोशालक देखते ही उन्हें रोक कर बोला- देवानुप्रिय आनन्द ! जरा ठहर और एक बात कहता हूँ, उसे सुन ।
पूर्व समय की बात है । एक नगर में रहनेवाले कुछ व्यापारी किराने की गाड़ियाँ भर व्यापार के लिए परदेश चले । चलते हुए वे एक भयंकर जंगल में पहुँचे । व्यापारी उसे लाँघते हुए आगे बढ़ते चले पर कहीं भी उस जंगल का अन्त आता दिखायी नहीं दिया । उनके पास का पानी समाप्त हो चुका था और वे उस भीषण जंगल में पानी की खोज में इधर-उधर घूमने लगे । घूमते फिरते वे एक हरियालीवाले निम्नप्रदेश में पहुँचे । वहाँ जल तो नहीं पर जलार्द्र चार बाँबी मिलीं । व्यापारियों ने एक बाँबी को खोदा तो उसके नीचे से स्वच्छ जल निकला । सब ने जल पिया और अपने अपने बरतनों में भी भर लिया । तब उनमें से एक सुबुद्धि वणिक ने कहा- अब चलिये, अपना काम हो गया । पर लोभी वणिक बोले- पहले वल्मीक में से जल निकला है तो दूसरे में से सुवर्ण आदि कुछ बहुमूल्य पदार्थ निकलेगा यह कहते हुए उन्होंने दूसरा वल्मीक तोड़ा और उसमें से सोना ही निकला । लोभियों का लोभ बढ़ा । वे बोले – पहले में से जल और दूसरे में से सोना निकला है तो तीसरे में से अवश्य ही मणिरत्न निकलेंगे । सुबुद्धि ने कहा— अतिलोभ को छोड़िये । सोना हाथ लगा है इसे लेकर चलें, पर लोभियों ने उसकी एक न सुनी और तीसरा वल्मीक भी तोड़ डाला और सचमुच ही उसमें से मणिरत्नों का खजाना निकला । लोभी वणिक बोले- आइये, अब इस आखिरी वल्मीक में से हीरे निकाल लें । सुबुद्धि ने कहा— अतिलोभ
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