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तीर्थकर-जीवन २४. चौबीसवाँ वर्ष (वि० पू० ४८९-४८८)
वर्षाकाल पूर्ण होने पर भगवान् वाणिज्यग्राम से ब्राह्मणकुण्ड के बहुसाल चैत्य में पधारे । यहाँ पर जमालि अनगार को अपने पाँच सौ शिष्यों के साथ पृथक् विहार करने की इच्छा हुई, वे उठे और भगवान् को वन्दन कर बोले-'भगवन् ! आपकी आज्ञा से मैं अपने परिवार के साथ पृथक विहार करना चाहता हूँ ।' जमालि की इस प्रार्थना का भगवान् ने कुछ भी उत्तर नहीं दिया ।
जमालि ने दूसरी तीसरी बार भी इसी तरह वन्दनपूर्वक, पृथक् विहार की आज्ञा माँगी परन्तु श्रमण भगवान् की तरफ से उसे कोई उत्तर नहीं मिला, तब जमालि बिना आज्ञा ही अपने अनुयायी पाँच सौ साधुओं के साथ बहुसाल चैत्य से निकल गया । ब्राह्मणकुण्ड से श्रमण भगवान् ने वत्सभूमि में प्रवेश किया और निर्ग्रन्थ प्रवचन का प्रचार करते हुए कौशंबी पधारे । यहाँ पर
आपको सूर्य और चन्द्र वन्दन करने के लिए पृथ्वी पर आये । पापित्यों की देशना का श्रमण भगवान् द्वारा समर्थन
__ कौशांबी से काशी राष्ट्र में से होकर भगवान् राजगृह के गुणशील चैत्य में पधारे । उन दिनों कुछ पापित्य स्थविर पाँच सौ अनगारों के साथ विचरते हुए राजगृह के निकटवर्ती तुंगीया नगरी के पुष्यवतीक चैत्य में आये हुए थे । स्थविरों का आगमन सुनकर तुंगीया के अनेक श्रमणोपासक वन्दन तथा धर्मोपदेश श्रवण करने के लिए उद्यान में गये । श्रमणोपासक तथा सभा के सामने स्थविरों ने चातुर्याम-धर्म का उपदेश किया । जिसे सुनकर श्रमणोपासकगण संतुष्ट हुआ और फिर वन्दन कर विशेष जिज्ञासा से ज्ञानगोष्ठी करने लगा, उन्होंने पूछा- भगवन् ! संयम का फल क्या है, और तप का फल क्या है ?
स्थविर--आर्यों ! संयम का फल है 'अनाश्रव' और तप का फल है 'निर्जरा' ।
श्रमणो०-भगवन् ! यदि संयम का फल अनाश्रव और तप का फल 'निर्जरा' है तो देवलोक में देव किस कारण से उत्पन्न होते हैं ?
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